उद्देश्य छात्रों का हित, तो फंड स्कूलों को क्यों?

इस बात से कोई भी इंकार नहीं करेगा कि गुणवत्ता युक्त शिक्षा ही 21वीं सदी के भारत की दशा और दिशा तय करेगी। केंद्र और राज्य सरकारें भी अब इस ओर काफी गंभीर दिखाई प्रतीत होती हैं। मोदी सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति लाने का प्रयास इसकी एक बानगी है। हालांकि इक्का दुक्का उदाहरणों को छोड़कर देश में सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था विशेषकर प्राथमिक शिक्षा की हालत में सुधार देखने को नहीं मिल रहा है।

वर्ष 2010 में ओईसीडी (ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) की रैंकिंग में पीसा (प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेन्ट्स एसेसमेंट) के 73 सदस्य देशों में से भारत को 72वां स्थान प्राप्त हुआ था। शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि कर रैंकिंग में सुधार करने की बजाए भारत ने इस प्रक्रिया में हिस्सा ही न लेने का फैसला कर लिया। लेकिन बुरी खबर सिर्फ इतनी नहीं है। प्रत्येक वर्ष जारी होने वाली एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) में एक उभयनिष्ठ बात शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार होती जा रही गिरावट होती है। इस वर्ष के रिपोर्ट की बात करें तो तीसरी कक्षा के सिर्फ 20 फीसद छात्रों के ही दूसरी कक्षा के स्तर की किताबें पढ़ सकने में सक्षमता की बात उजागर हुई है। रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले तीसरी कक्षा के 83.7 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा की किताब पढ़ने में सक्षम नहीं पाए गए। पांचवी कक्षा के 61.5 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ पढ़ने में अक्षम हैं। इसी प्रकार, सरकारी स्कूलों के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले 66.2 प्रतिशत ही दूसरी कक्षा के स्तर का पाठ पढ़ने में सक्षम पाए गए। असर 2022 के मुताबिक सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले तीसरी कक्षा के 80 प्रतिशत छात्र साधारण घटाव करने में समर्थ नहीं रहे। सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 के 78.4 प्रतिशत छात्र साधारण भाग करने में सक्षम नहीं पाए गए जबकि आठवीं के 41.8 प्रतिशत छात्र ही एक अंक का साधारण भाग करने में सक्षम पाए गए। 

लेकिन बात जब समस्या के समाधान की होती है तो कुछ शिक्षाविद् सदैव शिक्षा के मद में होने वाले खर्च को नाकाफी बताते हुए इसे देश की जीडीपी का 6% करने की मांग दोहराना शुरु कर देते हैं। उन्हें लगता है कि अधिक धन खर्च कर शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि देश में शिक्षा के मद में होने वाले खर्चों में आजादी के बाद से ही लगातार वृद्धि होती रही है। आजादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के लिए 153 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान किया गया था जो कि पांच वर्ष की अवधि में खर्च होना था। बजट की यह राशि बढ़ते बढ़ते वर्ष 2016-17 तक 68,968 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष हो गई। वर्ष 2022 के बजट में इसे बढ़ाकर 1,04,277 करोड़ कर दिया गया। लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार न होने थे और न हुए।

दिल्ली सरकार ने भी गत वर्ष 16,268 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान अकेले शिक्षा के मद में किया। राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों ने भी शिक्षा बजट में खूब वृद्धि की है। लेकिन यहां ध्यान देने की जरूरत है कि शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर हजारों करोड़ रुपए के कोष का अधिकांश हिस्सा स्कूल भवनों के निर्माण, शिक्षकों व कर्मचारियों के वेतन, नए शिक्षकों की भर्ती, शिक्षकों के प्रशिक्षण, मिड डे मिल इत्यादि पर ही व्यय हो जाता है। दरअसल, सरकारों की तरफ से खर्चों में लगातार वृद्धि की जा रही है। मौजूदा समय में सरकार शिक्षा पर जीडीपी का लगभग 3% खर्च करती है, लेकिन यह धनराशि लक्षित व्यक्ति तक पहुंच नहीं पा रही। धन का प्रवाह तमाम छिद्रों की वजह से रास्ते में ही लीक हो जा रहा है। सवाल यह है कि, क्या कोई तरीका है जिससे हम शिक्षा के मद में की जा रही वर्तमान धनराशि का अधिकतम उपयोग कर वांछित परिणाम हासिल किया जा सके!

दूसरा सवाल यह है कि इसे हासिल कैसे किया जाए, खास तौर पर तब जब केंद्र इस संबंध में बहुत कुछ नहीं कर सकता क्योंकि शिक्षा राज्य का विषय है। शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 में कई खामियां हो सकती हैं, लेकिन अगर मानव संसाधन एवं विकास मंत्री इसके लिए कोई ढांचा तैयार कर पाएं तो इसमें काफी संभावनाएं भी हैं। आरटीई कानून की धारा 12(1)(सी) में निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित तबके के छात्रों के लिए 25% सीटें आरक्षित कर मुफ्त पढ़ाई का प्रावधान किया गया है। इससे निजी स्कूलों में गरीब छात्रों के लिए करीब 20 लाख सीटों की व्यवस्था हो गई है। उक्त सीटों के एवज में सरकार स्कूलों को (अपने स्कूलों में प्रति छात्र होने वाले खर्च अथवा स्कूल के वास्तविक खर्च दोनों में से जो भी कम हो) भुगतान करती है

लेकिन स्कूलों पर इस प्रावधान को लागू करने में रूचि नहीं दिखाने के आरोप लगे हैं और उनकी शिकायत यह है कि इसके लिए उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है। प्रजा फाउंडेशन के हाल ही में कराए गए अध्ययन के मुताबिक दिल्ली सरकार के स्कूलों में प्रतिवर्ष प्रति छात्र औसतन 65,000 रुपए वार्षिक खर्च होता है। निजी स्कूलों में निश्चित ही इससे ज्यादा खर्च आता होगा। लेकिन दिल्ली सरकार निजी स्कूलों को एक छात्र के लिए 19,000 रु प्रति वर्ष के हिसाब से भुगतान करती है। ऊपर से यह भुगतान भी छात्रों की बजाए स्कूलों को किया जाता है, जिससे स्कूलों की जवाबदेही छात्रों के प्रति न्यूनतम रह जाती है।  

जबकि सरकार को करना यह चाहिए कि आरटीई एक्ट के तहत इस प्रावधान को सही तरीके से लागू कराने के लिए आवंटित राशि का भुगतान सीधे छात्रों को कराए। इसके लिए अभिभावक के खाते में डाइरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर या वाउचर या स्मार्ट कार्ड के जरिए भुगतान की व्यवस्था की जा सकती है। अच्छी बात यह है कि सरकार इस मौके का फायदा उठाने के लिए जरुरी बुनियादी ढांचा तैयार कर चुकी है। करीब 92% बच्चों के पास आधार कार्ड और उनके अभिभावकों के पास बैंक खाते हैं। इससे हर बच्चे की व्यक्तिगत रूप से निगरानी संभव हो सकेगी। एक बार गरीबों तक सीधा लाभ पहुंचने लगे तो उनके पास यह विकल्प होगा कि वे अपने बच्चों को पसंद के स्कूल भेजे। दूसरी तरफ आर्थिक रूप से कमजोर अभिभावकों की क्रय शक्ति बढ़ने से, स्कूलों पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का दबाव भी बढ़ेगा। साथ ही इससे फर्जी स्कूलों, अध्यापकों व छात्रों के नाम पर खर्चे के रूप में होने वाली चोरी रोकी जा सकेगी।

कुछ वर्ष मानव संसाधन मंत्रालय ने सरकारी स्कूलों 80,000 फर्जी अध्यापकों की पहचान की थी। हरियाणा और केरल में भी छात्रों को आधार से जोड़ने के बाद सरकारी स्कूलों में 4,00,000 से अधिक छात्र फर्जी पाए गए। ध्यान रहे कि ऐसा दो कारणों से किया जाता है। एक, कम छात्र होने के कारण स्कूल को बंद न कर दिया जाए, दूसरा छात्रों के नाम पर मिड डे मील व अन्य मदों की राशि की बंदरबांट भी हो सके। विदित है कि सरकार द्वारा एलपीजी सिलेंडर के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर से जोड़कर 50,000 करोड़ रुपए से ज्यादा बचाने का दावा स्वयं करती है।

अब आगे, होना ये चाहिए कि प्रति छात्र मिलने वाली वित्तीय सहायता सीधे स्कूलों को मिलने के बजाय, परोक्ष रूप से वाउचर के रूप में माता-पिता को मिल जाए। (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण या डीबीटी) इससे अभिभावकों का सशक्तिकरण होगा। जहां शिक्षक शिथिल पड़े, अभिभावक बच्चों को वहां से निकाल सकते हैं, उनके साथ अपने वाउचर दूसरे स्कूल ले जा सकते हैं, जिससे कि उस स्कूल को मिलनेवाली सरकारी वित्तीय सहायता कम हो जाएगी। शिक्षा की गुणवत्ता के साथ लापरवाही करने वाले स्कूलों को आर्थिक दंड देने के लिए अभिभावकों को मिली ये क्षमता स्कूलों और शिक्षकों को ज़िम्मेदार बनाएगी, यहां तक की गरीब और अशिक्षित अभिभावकों को भी सशक्त बनाएगी। जवाबदेही के लिए बनी ये संरचनाएं प्रति छात्र डीबीटी अनुदान में निहित और अंतर्निहित हैं। संविधान में दिए गए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने के अधिकार (86वां संशोधन), आरटीआई एक्ट के रूप में कानून की ताकत, धन मुहैया कराने की व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के अपनी जगह दुरुस्त होने पर, मुझे मौजूदा मानव संसाधन एवं विकास मंत्री के सामने नई व जवाबदेही से युक्त शिक्षा व्यवस्था का वास्तुकार बन सकने की बड़ी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं, लगभग वैसे ही, जैसे 1991 में डॉ मनमोहन सिंह, आर्थिक सुधारों के वास्तुकार बन गए थे। सार्वजनिक अनुदान से चलने वाले स्कूलों की अव्यवस्थित जवाबदेही के चलते अब ज़रुरत हैं कि सरकारी स्तर पर अधिक दूरगामी व साहसिक फैसले लिए जाए।

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