निजी स्कूलों के शिक्षकों को कैसे मिले समान वेतन और भत्ते!

शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) 2009 की विसंगतियां एक बार फिर से कम फीस वाले बजट स्कूलों की नींदें उड़ा रहीं हैं। दरअसल आरटीई के प्रावधानों के आधार पर दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में निजी स्कूलों के शिक्षकों को सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के समान वेतन, पीएफ, ग्रेच्युटी, मेडिकल आदि प्राप्त करने का अधिकारी बताया है। कोर्ट ने स्कूलों के द्वारा शिक्षकों को नौकरी से निकालने से पहले उन्हीं प्रक्रियाओं का पालन करने की बात कही है जो सरकारी शिक्षकों स्कूलों पर लागू होते हैं।

समाज में शिक्षकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में तो गुरु (शिक्षक) को ईश्वर से भी ऊपर का दर्जा प्राप्त है। शिक्षकों को उचित वेतन और मानदेय प्राप्त हो और उनका शोषण न हो यह हर कोई चाहता है। लेकिन अफसोस ये है कि देश में शिक्षकों का शोषण बदस्तूर जारी है। इसमें निजी और सरकारी शिक्षण संस्थान दोनों बराबर रूप से शामिल हैं। अच्छी नीति की बजाए अच्छी नियत के साथ लागू किया गया शिक्षा का अधिकार कानून ने शिक्षकों की समस्याओं को और विकराल रूप देने का ही काम किया है। मजे की बात ये है कि इस कानून को लाने की सबसे बड़ी जरूरत सरकारी शिक्षण संस्थाओं की बद से बदतर होती स्थिति को सुधारना था, लेकिन इससे तुलनात्मक रूप से बेहतर प्रदर्शन करने वाले निजी स्कूलों का ही सबसे अधिक नुकसान हुआ। देशभर में बड़ी तादात में निजी स्कूल तालाबंदी को मजबूर हुए जबकि सरकारी स्कूलों में मामूली परिवर्तन ही देखने को मिलता है।

शिक्षा का अधिकार कानून को तैयार करते समय नीति निर्धारकों के द्वारा जो सबसे बड़ी गलती हुई वह यह कि देश की स्कूली प्रणाली की विविधताओं को ध्यान में नहीं रखा गया। यह कानून सभी प्रकार के स्कूलों को समान रूप से ‘ट्रीट’ करता है। जबकि भारतीय शिक्षा प्रणाली एकल विद्यालय, गली मोहल्ले में चलने वाले बजट स्कूल, सामुदायिक स्कूल, धार्मिक अल्पसंख्यक स्कूल, गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल, सहायता प्राप्त निजी स्कूल, अर्द्ध सरकारी स्कूल, ग्राम पंचायत द्वारा संचालित स्कूल, म्यूनिसिपालिटी स्कूल, राज्य सरकार के तहत संचालित स्कूल, केंद्र सरकार के स्कूल, विशेष प्रतिभा स्कूल, आवासीय नवोदय स्कूल आदि में विभक्त है। इन सभी स्कूलों की कार्य प्रणाली, पढ़ने वाले छात्रों की पृष्ठभूमि, परिवार की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, यहां कार्यरत शिक्षकों और कर्मचारियों की शैक्षणिक योग्यता, कार्य करने का इंसेंटिव, स्कूल संचालकों का मोटिवेशन आदि सभी एक दूसरे से भिन्न होते हैं। जबकि आरटीई ‘वन शर्ट फिट्स ऑल (एक कमीज के सब पर अटना)’ वाले सिद्दांत पर आधारित है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं। सीबीएसई बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त स्कूल चलाने के लिए स्कूल के पास न्यूनतम लगभग दो एकड़ जमीन (8000 वर्ग मीटर) का होना आवश्यक है। हालांकि जनसंख्या और कुछ शहरों की विशेष प्रवृति को देखते हुए उसमें रियायत दी गई है। उदाहरण के लिए दिल्ली (नगर निगम की सीमा के भीतर) में स्कूल खोलने के लिए कम से कम 1600 वर्ग मीटर जमीन का होना आवश्यक  है। दिल्ली में जनसंख्या घनत्व और जमीन की कमी को देखते हुए भूखंडों की कीमत आसमान छूती है और आवश्यक भूखंड की कीमत कई करोड़ की होती है। आरटीई के तहत प्रति कक्षा छात्रों की संख्या, कमरों का आकार, प्रति शिक्षक छात्रों की अधिकतम संख्या, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, खेल के मैदान, छात्र-छात्राओं के लिए अलग अलग शौचालय आदि होने का प्रावधान है। इसके अलावा स्थानीय प्रशासन के द्वारा पानी, फायर सेफ्टी, आपातकालीन निकास आदि के प्रावधान हैं। इस प्रकार, दिल्ली में एक स्कूल स्थापित करने के लिए कई वर्षों का समय और करोड़ों रुपये की धनराशि की आवश्यकता पड़ती है। रही सही कसर स्कूलों के गैर लाभकारी प्रवृति का होना, आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षित होना, सरकार द्वारा गरीब छात्रों के लिए प्रतिपूर्ति के लिए मनमानी राशि का निर्धारण, प्रतिपूर्ति राशि का नियमित अंतराल पर जारी न होना, समय समय पर सुरक्षा के नए प्रावधानों के लिए आदेश जारी करना आदि के द्वारा पूरी हो जाती है। कोढ़ में खाज़ ये कि स्कूल अपने हिसाब से फीस और फीस वृद्धि का निर्धारण भी नहीं कर सकते।

राजधानी दिल्ली में कम शुल्क वाले गैर सहायता प्राप्त बजट स्कूलों की तादात भी हजारों में है और यहां लाखों छात्र शिक्षा हासिल करते हैं। इन स्कूलों की फीस 200 रुपये प्रति माह से 1500 रुपये प्रति माह है। यदि इन स्कूलों में प्रति कक्षा छात्रों की संख्या 35 और औसत मासिक फीस 1000 मान लें तो प्रति कक्षा प्रति माह एक स्कूल संचालक 35000 रुपये प्राप्त करता है। स्कूल के अन्य कर्मचारियों का वेतन, अपनी बचत व अन्य खर्च निकालकर प्रतिमाह प्रतिकक्षा औसतन 15-20000 रुपये (आदर्श स्थिति में जब सौ फीसदी छात्र फीस जमा करते हों) की बचत होती है। इसमें से कुछ धनराशि स्कूल और कक्षाओं के विकास, नई तकनीक पर खर्च, नवाचार में निवेश आदि के लिए भी बचाना होता है। अब स्कूल संचालक शिक्षक को कितने रुपये की तनख्वाह दे और कितना पीएफ, ग्रेच्युटी, मेडिकल आदि के खर्चे के लिए कटौती करे।

निजी और सरकारी स्कूलों के प्रदर्शन में अंतर का एक कारण निजी संस्थानों के पास मनमुताबिक हायर और फायर का अधिकार भी है। अब यदि सरकार कोर्ट के आदेश का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित कराने लगे तो कितने स्कूलों की फीस बढ़ानी पड़ेगी, कितने शिक्षकों और कर्मचारियों की संख्या में कटौती करनी होगी, कितने स्कूल बंद होने को मजबूर होंगे इनकी बस कल्पना ही की जा सकती है। इस प्रकार, कोर्ट का आदेश वास्तव में शिक्षकों और छात्रों का हित करने की बजाए उनका नुकसान करने वाला ज्यादा साबित होगा। किसी भी नियम को बनाने और उनका अनुपालन कराने से पहले लागत विश्लेषण (कॉस्ट एनालिसिस) करना ज्यादा उचित होगा।

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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