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गुरचरण दास
राष्ट्र के गरीबी से सम्पन्नता की ओर जाने व एक छोर से दूसरे छोर तक फैले विचारों के संघर्ष की रोचक कहानी है. आज का भारत मुक्त बाजार-तंत्र पर आधारित है और इसने अपने हाथ विश्वव्यापी सूचना अर्थव्यवस्था में भी आजमाने शुरु कर दिए हैं.

मुक्त भारत
राष्ट्र के गरीबी से सम्पन्नता की ओर जाने व एक छोर से दूसरे छोर तक फैले विचारों के संघर्ष की रोचक कहानी है. आज का भारत मुक्त बाजार-तंत्र पर आधारित है और इसने अपने हाथ विश्वव्यापी सूचना अर्थव्यवस्था में भी आजमाने शुरु कर दिए हैं. पुराना नौकरशाही राज्य, जिसने उद्योगों के विकास को दबा दिया था वह भी अब ह्रास की ओर अग्रसर है. भारत का निम्नवर्ग अब मतपेटी की ताकत के सहारे पूर्ण आत्मविश्वास के साथ उभर रहा है. पिछले दो दशकों में मध्यवर्ग तिगुना हो चुका है. यही आर्थिक और सामाजिक बदलाव ही इस पुस्तक का मुख्य विषय है.
इस पुस्तक में गुरचरण दास ने पिछले पचास वर्षों की आशाओं व निराशाओं को प्रस्तुत किया है. 1991 के सुनहरे ग्रीष्म के साथ ही सुधार शुरु हुए, जब शांतिप्रिय सुधारक, प्रधानमंत्री नरसिंहराव, ने आर्थिक सुधारों के साथ देश के विकास की दिशा ही बदल दी. जब सारा काम जहां राज्य के अंतर्गत होता था तब उन्होने उभरते मध्यवर्ग को आशा की एक नई किरण दिखाई, उस मध्यवर्ग को जो बाकी विश्व के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए व्याकुल था. यह एक ऐसी शांत क्रांति थी जो इतिहास में पहले कभी नही हुई थी.
गुरचरण दास ने स्वतंत्र भारत के उतार-चढ़ावों का इतिहासानुसार व अपने खुद के और सुधारों के दौरान मिले बहुत से लोगों के अनुभवों के आधार पर अध्ययन किया. यह पुस्तक नए राष्ट्र की समझ और इरादों के बारें में बताती है और कई प्रश्नों के हल खोजती है.
'मुक्त भारत आईना है
समकालीन भारत का.'
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भारतीय सात जनवरी की सुबह उठे तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थक यूएस कैपिटल में घुस गए थे। मौजूदा राष्ट्रपति द्वारा लोकतंत्र पर हमला करना, निष्पक्ष चुनाव को पलटने का प्रयास करना अमेरिकी इतिहास में मनहूस पल था। भारत में प्रतिक्रिया बंटी हुई थी। कुछ को चिंता थी कि कमजोर अमेरिका आक्रामक चीन पर नियंत्रण कर भारत की मदद नहीं कर पाएगा।
वहीं कुछ दुनियाभर को दशकों से लोकतंत्र पर ज्ञान देने वाले अमेरिका को खुद

कल्पना कीजिए कि आप एेसे आदर्शवादी युवा हैं, जिसमें भावी पीढ़ी के बच्चों को प्रेरित करने की महत्वाकांक्षा है। इसलिए आप स्कूल खोलते हैं। आप अपने जैसे ही प्रेरक शिक्षक जुटाते हैं। स्कूल तत्काल सफल हो जाता है और उसे छात्रों, पालकों और समाज का सम्मान प्राप्त होता है। फिर 2010 में एक नया कानून (राइट टू एजुकेशन एक्ट) आता है। इसमें सरकारी और निजी स्कूलों के शिक्षकों में वेतन की समानता की बात है। आप अपने शिक्षकों का वेतन दोगुना कर 25 हजार प्रतिमाह करने पर मजबूर होते हैं। यहां तक कि श्रेष्ठतम निजी स्कूल

यद्यपि सन् 1991 से भारत में आर्थिक सुधारों की शुभारंभ और मुक्त बाजार के साथ भारतीयों के प्रेम प्रसंग को शुरू हुए दो दशक बीत चुके हैं, इसके बावजूद पूंजीवाद को भारत में अपना मुकाम पाने के लिए अबतक जद्दोजहद करना पड़ रहा है। अधिकांश लोगों की भांति भारतीय भी मानते हैं कि बाजार फलदायक तो है लेकिन नैतिक नहीं है। लेकिन मेरी राय इसके बिल्कुल उलट है। मेरा मानना है कि इंसान अनैतिक होता है और लोकतंत्र के तहत या राजतंत्र के तहत, समाजवादी व्यवस्था हो अथवा पूंजीवादी समाज बुरा व्यवहार वही करता है। बाजार नामक


क्रिकेट के इंडियन प्रीमियम लीग में फिक्सिंग घोटाला हमारे राष्ट्रीय जीवन के बीमार और कभी खत्म न होने वाले राष्ट्रीय पतन की एक और अपमानजनक कहानी है। हम प्रशासन और कानूनी संस्थाओं पर आरोप लगाने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि हम भूल गए कि हमारी दयनीय शिक्षा प्रणाली भी इसके लिए जिम्मेदार है। और हां, माता-पिता भी दोषी हैं, क्योंकि घर हमारे नैतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। फिर भी एक प्रेरणादायक शिक्षक एक युवक के नैतिक मूल्यों में परिवर्तन ला सकता है। यह निष्कर्ष है 33 वर्षीय हार्वर्ड अर्थशास्त्री राज



जब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का झंडा अन्ना हजारे के हाथों से अरविंद केजरीवाल के पास आया तो इसमें एक नया जोश देखने को मिला। पिछले कुछ हफ्तों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा, कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के खुलासे सामने आए। भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लड़ाई सफल होती है या नहीं, लेकिन यह अपने पीछे एक बड़ी उपलब्धि छोड़ रही है। इसने मध्य वर्ग को जगा दिया है और शशि कुमार की कहानी इसे साबित करती है।
शशि कुमार से मेरी मुलाकात दस साल पहले हुई थी। 22 साल के इस

वॉशिंगटन डीसी में भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु एक सच बात कह गए। उन्होंने वहां उपस्थित अपने श्रोताओं से कहा कि उनकी सरकार की निर्णय क्षमता पंगु हो चुकी है और २०१४ के चुनावों तक किसी तरह के सुधारों की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। अलबत्ता, बाद में उन्होंने इस बयान का खंडन किया, क्योंकि इससे उन्हीं की सरकार की फजीहत हो रही थी, लेकिन सच्चाई तो यही है कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा, जो भारत में पिछले दो सालों से नहीं कहा जा रहा था। वॉशिंगटन में बसु के श्रोता हैरान थे कि भारत जैसा जीवंत लोकतंत्र, जो एक उभरती हुई
'आधुनिक' और 'पाश्चात्य' के बीच भेद जानने की असमर्थता ही हमारे दुख का कारण है। सभी बुद्धिजीवी तथा सभ्य मनुष्यों की आलोचनात्मक सोच केवल पश्चिम की पूंजी नहीं है बल्कि सर्वव्यापक है तब हमें उस पर इतना दुखी नहीं होना पड़ेगा। हमें अपनी शक्ति को अच्छे कामों के लिए बचाकर रखना चाहिए न कि उसे स्वदेशी, हिंदुत्व, भारतीय भाषा पर विवाद, अमेरिका पर टिप्पणी, विदेशी पूंजी निवेशकों पर कटाक्ष आदि बेकार के मुद्दों पर बरबाद करना चाहिए। उन्नीसवीं शताब्दी में राजा राममोहन राय द्वारा शुरू आधुनिकीकरण तथा पश्चिमी सभ्यता के बीच विवाद आज
सभी सुधारक कुंआरे हुए हैं।
-जॉर्ज मूर
1996 के आम चुनावों में कांग्रेस की हार की कोई व्याख्या किस प्रकार कर सकता है। नब्बे के दशक के कुछ वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के जीवनकाल थे। सुनहरा समय था तथा जिसमें अलग से समष्टिगत अर्थशास्त्र के उत्कृष्ट परिणाम देखने को मिले। सुधारों ने विश्वास की उत्सुकता की समझ हम में जगाई। बहुत से लोगों ने इसी तरह की समझ व संभावनाएं पचास के दशक में भी महसूस की थीं। अर्थशास्त्रियों ने भारत को कवर स्टोरी