जानें नए कृषि कानूनों को लेकर शेतकारी संगठन के किसान नेता गुणवंत पाटिल क्यों हैं उत्साहित!

पिछले दिनों काफी हो-हल्ले के बीच मोदी सरकार ने राज्यसभा से तीन विधेयक पारित करा लिये। देश में कृषि की अवस्था में सुधार के उद्देश्य से पारित ये तीन विधेयक हैं; कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संसोधन) विधेयक 2020। सरकार के मुताबिक पहले विधेयक का उद्देश्य एक ऐसे इकोसिस्टम का निर्माण करना है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फसल बेचने और खरीदने की आज़ादी होगी। दूसरे विधेयक का उद्देश्य कृषि करारों के संबंध में एक राष्ट्रीय तंत्र की स्थापना करना है जहां कृषि उत्पादों की बिक्री, फार्म सेवाओं, कृषि व्यवसाय से जुड़े फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जोड़ने के लिये उन्हें सशक्त बनाना और तीसरे विधेयक का उद्देश्य अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन सहित आलू-प्याज आदि को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाना है।

सुधार के इन कदमों के विरोध में तमाम किसान संगठन काफी आंदोलित हैं वहीं देश का सबसे बड़ा किसान संगठन शेतकारी संगठन इसका स्वागत कर रहा है। संगठन इसे देर से लिया गया सही कदम बता रहा है। इस विषय पर आज़ादी.मी के संपादक अविनाश चंद्र ने शेतकारी संगठन के किसान नेता गुणवंत पाटिल से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ प्रमुख अंशः

प्रश्नः कृषि के क्षेत्र में हालिया सुधार के प्रयासों को आप किस तरह देखते हैं?
उत्तरः मैं किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूं और मेरे पिताजी जमींदार थे। हमारे पास बहुत अधिक जमीन थी लेकिन हमें उससे आय बहुत कम होती थी। जब मैं कॉलेज में था तो सोचता था कि पिताजी खेती को लेकर सही फैसले नहीं ले पाते इसलिए उन्हें आमदनी कम होती है। लेकिन बाद में जब मैंने इस काम को नजदीक से देखा तो जाना कि कृषि कार्य से मुनाफा न होना का कारण पिताजी के गलत फैसले नहीं बल्कि सरकार की गलत नीतियां थीं। उस समय हमारा नारा हुआ करता था, ‘छूट सब्सिडी का नहीं काम, हमें चाहिए पसीने का दाम’। शरद जोशी के नेतृत्व में किसानों की सरकार से मांग थी कि हमें खुला (मुक्त) कर दो। हमें भीख नहीं चाहिए, हमें अपने पसीने की कीमत चाहिए। नब्बे के दशक में देश जब आर्थिक सुधारों को आत्मसात कर रहा था तब हमें भी एक आशा जगी की किसानों के हालात में भी सुधार आएगा। लेकिन सुधार के लिये किए गए प्रयासों से कृषि अछूती रही और यह उद्योग धंधों और इंडस्ट्रीज तक ही सीमित रह गया।
अब जब तीन नए कानून आए हैं तो हमें फिर से उम्मीद जगी है। पहले मंडी कानून (एपीएमसी) और एमएसपी के नाम पर किसानों को खूब लूटा गया लेकिन एपीएमसी एक्ट के समापन से हमें अपने उत्पाद के लिये व्यापक बाजार मिलेगा और हम अपने उत्पाद की कीमत खुद तय करने में समर्थ रहेंगे। हम इसका स्वागत करते हैं।
 

प्रश्नः उपरोक्त सुधारों के अलावा क्या कुछ और सुझाव हैं जो आप सरकार को देना चाहेंगे?
उत्तरः लैंड सीलिंग एक्ट के कारण भी किसानों का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। इस एक्ट के तहत जमीन रखने की अधिकतम सीमा तय कर दी गई है। महाराष्ट्र में 54 एकड़ से अधिक कृषि योग्य भूमि रखने की अनुमति नहीं है। एक अन्य कानून है जो आपको लैंडलेस यानी कि भूमि-हीन होने से रोकता है। यानी किसान अपनी जमीन बेचकर इस घाटे के व्यवसाय से बाहर निकल भी नहीं सकता। एक और कानून है कि यदि आप पैसे वाले हैं और आपकी चार पुश्तों में किसी ने खेती नहीं की है तो आप किसान नहीं बन सकते और खेत नहीं खरीद सकते। पूर्व में फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन और अभिनेत्री रानी मुखर्जी ऐसे विवाद में फंस चुके हैं। एक अन्य कानून कहता है कि आदिवासियों की जमीन सिर्फ आदिवासी ही खरीद सकता है, कोई और नहीं खरीद सकता। इससे आदिवासियों को उनके जमीन का वास्तविक भाव नहीं मिलता क्योंकि वहां प्रतिस्पर्धा रोक दी गई है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासियों का ही हुआ है।

प्रश्नः सुधार के वर्तमान प्रयासों के तहत उपरोक्त समस्याओं का क्या समाधान निकाला गया है?
उत्तरः काफी हद तक कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 इस समस्या का समाधान सुझाता है। कांट्रैक्ट फार्मिंग के प्रावधान के तहत किसान अपनी जमीन को इकट्ठा कर एक फसल की पैदावार करने और मनचाहे व्यापारी को मनचाही कीमत पर बेच सकते हैं या कीमत के संदर्भ में पहले से करार कर सकते हैं।

प्रश्नः लेकिन किसानों को डर है कि कांट्रैक्ट फार्मिंग के चलते वे अपनी ही जमीन पर मजदूर बनकर रह जाएंगे?
कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी की अनुबंध खेती को किसानों के लिये घाटे का सौदा बताने वाले लोग गलत हैं। कांट्रैक्ट फार्मिंग का तरीका बहुत पहले से ही किसानों और जमीन के मालिकों के बीच प्रचलन में है। हां, पहले जहां यह कार्य आपसी समझौते के तहत होता था अब उसे कानूनी तौर पर किया जा सकेगा। पहले जमीन के मालिकों को यह डर होता था कि यदि जमीन किसी और को जोतने और फसल उगाने के लिए दे दिया जाएगा तो वह उस पर कब्जा कर लेगा और जमीन का स्वामित्व उसे जोतने वाले को मिल जाएगा। तमाम लोग अपनी जमीन को खाली पड़ा रहने देते थे लेकिन उसे किसी को फसल उगाने के लिये नहीं देते थे। उधर, जमीन पर जुताई करने वाला भी फसल खराब होने की दशा में क्षतिपूर्ति क्लेम नहीं कर पाता था क्योंकि उसके पास कोई प्रूफ नहीं होता था। अब इसे कानूनी शक्ल मिल जाने पर जमीन का मालिक और भूमि हीन दोनों को संरक्षण मिलेगा।
किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बन जाएगा यह डर भी बिल्कुल निराधार है। इसे टैक्सी एग्रिगेटर कंपनी ओला-उबर के उदाहरण से समझ सकते हैं। ओला उबर आने के बाद कार मालिकों को कई तरीके से फायदा मिला। वो चाहे तो अपनी कार किसी और ड्राइवर को देकर कमाई एक हिस्सा प्राप्त कर सकते हैं। चाहे तो खुद चलाकर पूरी कमाई अपने पास रख सकते हैं। ओला उबर किसी की कार को जब्त कर लेती है क्या? ठीक इसी प्रकार कांट्रैक्ट फार्मिंग से जमीन मालिक चाहे तो कंपनी से जुड़कर अपनी जमीन का किराया वसूल सकता है या खुद मजदूरी कर किराया और मजदूरी दोनों हासिल कर सकता है। इसमें कंपनी, जमीन का मालिक और भूमि हीन मजदूर तीनों को लाभ मिलेगा।
 

इस बातचीत को यहां देखा जा सकता है https://www.facebook.com/watch/?v=990388491446896

लेखक के बारे में

अविनाश चंद्र

अविनाश चंद्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीनियर फेलो हैं। वे पब्लिक पॉलिसी मामलों के विशेषज्ञ हैं और उदारवादी वेब पोर्टल आजादी.मी के संयोजक हैं।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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