किसान कब तक बंधुआ मज़दूरी करेगा?

ज़मीन पर मालिकाना हक़ का मतलब है - ज़मीन को न सिर्फ बेचने का हक़, बल्कि उसे मनचाहे ढंग से इस्तेमाल करने, किराए पर देने और गिरवी रखने का हक़।  खेती की ज़मीन की बात करें, तो हमारे देश में किसानों का मालिकाना हक़ काफी कमजोर है। भारतीय राज्यों के  कानून खेती की ज़मीन को बेचने, इस्तेमाल करने और पट्टे पर देने पर कई तरह की बंदिशें लगाते  हैं। कहने को तो ये बंदिशें किसानों को शोषण से बचाने के लिए हैं,  कृषि अर्थव्यवस्था की क्षमता और समानता को बढ़ावा  देने के लिए हैं , पर ये बंदिशें कई परेशानियों का सबब हैं।  

भारत में अधिकांश जोत छोटी है। NSSO सर्वे के अनुसार  महाराष्ट्र में औसतन एक  किसान परिवार केवल 0.784 हेक्टेयर भूमि का उपयोग करता है। दूसरे मुल्कों के मुक़ाबले यह बहुत कम है।  आधुनिक मशीनों यानी ट्रैक्टर और टेक्नोलॉजी के लिए छोटी जोत के लिए बहुत महंगी पड़ती है।  ऐसे में इतनी छोटी  जोत वाला किसान क्या बोएगा, काटेगा, बेचेगा और क्या खायेगा। ये खेती का मॉडल “खुद ही कमाया, खुद ही खाया” जैसा है। अगर किसानों को समृद्ध बनाना है, तो उनकी उत्पादकता इतनी होनी चाहिए, वो बाजार में जाकर अपना ढेर माल बेच अच्छा पैसा कमा सके।  ऐसे में जोत का आकार बड़ा होना चाहिए, ताकि किसान वहां आधुनिक तकनीक का निवेश कर अपनी उत्पादकता बढ़ा सके। छोटी जोत गरीबी की गारंटी है, और बड़ी जोत समृद्धि का प्रतीक।

बड़े किसान अपनी जोत बढ़ाना चाहते हैं और कई छोटे किसान शहर जाकर नौकरी तलाशते है।  ऐसे में ज़मीन पट्टे पर देना उन दोनों के लिए  व्यावहारिक उपाय है।  पर,  सख्त और अटपटे कानून किसानों के लिए पट्टे पर ज़मीन देकर पैसा नहीं कमाने देते।  जैसे महाराष्ट्र में टिलर डे (1 अप्रैल 1957) के बाद का कोई भी पट्टा बहुत जोखिम भरा है। यदि पट्टा एक साल से ज़्यादा वक़्त तक रहता है, तो यह समझा जाएगा कि किरायेदार ने जमीन खरीदी ली  है। ऐसे में कोई किसान क्यों पट्टे पर अपनी ज़मीन देगा? कम-से-कम कानूनी तौर पर तो नहीं देगा।  

कृषि-जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पट्टे पर दी गई भूमि महाराष्ट्र में कुल भूमि का केवल 0.01% है। हालांकि, भूमि पट्टे पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की रिपोर्ट के हिसाब से यह संख्या 3.4% है - यानी यह आधिकारिक संख्या का 340 गुना। इसका मतलब है कि जमीन पट्टे पर दी और ली जा रही है, मगर अनौपचारिक रूप से।  इसमें दो दिक्कतें होती हैं - एक, किरायेदार ज़मीन में ज़्यादा निवेश नहीं करेगा , और दूसरा किसी भी पार्टी के अधिकारों को लागू करने में मुश्किल होगी।

राज्य में भूमि पट्टे की व्यवस्था को उदार बनाने की ज़रुरत है।  किसानों को बेझिझक भूमि पट्टे पर देने की आज़ादी हो। खेती छोड़ने की आज़ादी हो।  

आखिर कब तक हम अपने स्वार्थ के लिए किसानो को बंधुआ मज़दूर बनाये रखेंगे?

लेखक के बारे में

प्रशांत नारंग

प्रशांत नारंग एडवोकेट हैं। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी में उनके सबसे महत्वपूर्ण योगदान में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सुधार सिफारिशें और स्ट्रीट वेंडर कंप्लायंस इंडेक्स शामिल हैं। उन्होंने राजस्थान में स्ट्रीट वेंडर कानून के कार्यान्वयन के लिए सर्वोच्च न्यायालय से एक अनुकूल निर्णय भी प्राप्त किया। कानूनी क्षेत्र के सुधारों, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और स्ट्रीट वेंडर्स अधिनियम पर लिखित जर्नल पेपर और छोटे टुकड़े होने के कारण, उनकी वर्तमान रुचि क्षेत्र कानून का शासन और भारत में व्यापार और व्यापार करने का संवैधानिक अधिकार है।

डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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