भारत में ई-कचरे की समस्या को हल करने के लिए सरकार क्या कर सकती है

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तारिणी सुधाकर, अप्रैल 05, 2021

 

 

प्रधान मंत्री ने 'मेक इन इंडिया' और 'डिजिटल इंडिया' जैसी योजनाओं के माध्यम से मुख्य आर्थिक मुद्दों पर राष्ट्रीय भावना को समझने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन अब इन योजनाओं का देश में ई-कचरे के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव को भी सरकार को अवश्य स्वीकार करना चाहिए और भारत में तेजी से बढ़ते ई-कचरे की समस्या को रोकने के लिए शीघ्रता से कार्य करना चाहिए।

प्रदूषण को रोकने के लिए लागू की गई पिछली नीतियां अनधिकृत पुनर्चक्रण कर्ताओं (रीसायकलर्स) के कारण असफल रहीं क्योंकि वे जहरीले अपशिष्टों का समुचित समाधान नहीं करते हैं। हम वर्तमान ई-कचरा प्रबंधन मॉडल में तीन संशोधनों का प्रस्ताव रखते हैं जो उपभोक्ताओं को अपना ई-कचरा उत्पादकों को वापस करने के लिए प्रोत्साहित करेगा, अनधिकृत पुनर्चक्रण कर्ताओं के द्वारा होने वाले रिसाव को कम करेगा और सरकार को ई-कचरे के लेनदेन को अधिक कुशलता पूर्वक ट्रैक करने में मदद करेगा।

जहरीले अपशिष्टों के समुचित समाधान को सुनिश्चित कैसे किया जाता है?

भारत में ई-कचरे के होने वाले पुनर्चक्रण की कुल मात्रा में से 90 प्रतिशत का पुनर्चक्रण अनौपचारिक तरीके से किया जाता है। अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ता फायदेमंद धातुओं जैसे कि सोना, तांबा और एल्यूमीनियम को तो निकाल लेते हैं लेकिन जहरीले तत्वों जैसे कि सीसा (लीड) और पारे (मरकरी) को कूड़े में फेंक देते हैं। अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली के लोनी, मंडोली और कृष्णा विहार इलाके की जमीनी मिट्टी भारी धातुओं के अपमिश्रण से बुरी तरह प्रदूषित हो गई है। ऐसा इसलिए क्योंकि इन इलाकों में ई-कचरे को खुले में फेंक दिया जाता है। यमुना नदी की भयावह स्थिति से सभी वाकिफ हैं और ई-कचरे की बहुलता वाले इलाकों जैसे कि मुरादाबाद और सीलमपुर में हवा की गुणवत्ता प्रदूषण के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गई है। 

तो फिर, जहरीले अपशिष्टों के समुचित समाधान को सुनिश्चित कैसे किया जाए?

ई-कचरा प्रबंधन नियम (द ई-वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स) 2016 ने उत्पादकों की जिम्मेदारियों के विस्तार (एक्सटेंडेड प्रॉड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी) मॉडल के माध्यम से ई-कचरे के बहाव को अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं की ओर जाने से रोकने और खतरनाक अपशिष्टों के सुरक्षित समाधान के प्रति आश्वस्त करने का प्रयास किया।

इसके तहत, इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिकल इक्विपमेंट्स (उपकरणों) के उत्पादकों को यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की जीवन अवधि समाप्त होने के बाद उन्हें अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं के पास भेजा जाए।  

लेकिन वर्ष 2018 में टॉक्सिक लिंक द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार, भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिकल इक्विपमेंट्स (ईईई) के कुल बड़े उत्पादकों में 53 प्रतिशत उत्पादकों की ईपीआर अनुपालन की रैकिंग ‘औसत से खराब’ है। दरअसल, भारत में अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं से संबंधित हमारे शोध में पता चला है कि वर्ष 2016 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड) के तहत पंजीकृत 178 पुनर्चक्रणकर्ताओं का प्रदर्शन या तो क्षमता से कम है या वे घाटे में चल रहे हैं।  

अनौपचारिक क्षेत्र में पुनर्चक्रण

उधर, अनौपचारिक क्षेत्र में पुनर्चक्रण का कार्य काफी मुनाफा प्रदान करने वाला है। भारत में उत्पन्न होने वाले ई-कचरे का 95 फीसदी पुनर्चक्रण अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ता करते हैं। वे आधिकारिक पुनर्चक्रणकर्ताओं से कम से कम दोगुनी कीमत देने की पेशकश करते हैं। उदाहरण के लिए, एक अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ता जीवन अवधि समाप्त कर चुके एचपी के एक लैपटाप के लिए 4,642.9 रुपए की निविदा (कोटेशन) देता है जबकि अधिकृत पुनर्चक्रण उसी लैपटॉप के लिए 1,133.3 रुपए की निविदा देता है।

कीमतों में यह बड़ा अंतर अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं की परिचालन दक्षता का परिणाम है। वे जहरीले अपशिष्टों को सुरक्षित रूप से निपटाने की लागत को दरकिनार करते हैं, लाइसेंस हासिल करने की प्रक्रिया में आने वाली नियामक लागतों को उपेक्षा करते हैं और श्रमिकों की सुरक्षा की अनदेखी करते हैं। 

इसके अलावा, अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ता निष्पादन के लिए आने वाले इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिकल उपकरणों की मरम्मत और पुनर्सज्जा कर नेहरू प्लेस और गफ्फार मार्केट जैसे दिल्ली के द्वितीयक बाजारों में बेच देते हैं और अतिरिक्त लाभ कमाते हैं। 

अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं पर उत्पादक कंपनियों द्वारा ऐसा किए जाने की मनाही होती है। कंपनियां अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं से ई-कचरे को नष्ट किये जाने का प्रमाण मांगती हैं ताकि नए उत्पादों को पुराने व सेकंड हैंड वस्तुओं से मिलने वाली प्रतिस्पर्धा को रोका जा सके। 

अनौपचारिक क्षेत्र (इनफॉर्मल सेक्टर) के द्वारा होने वाले इस रिसाव को दो सिद्धांतों के द्वारा रोका जा सकता हैः पहला, उपभोक्ताओं को अपने ई-कचरे को अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं को ही बेचने के लिए प्रोत्साहन मिलना चाहिए। दूसरा, अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं को उनके द्वारा संग्रहित किये गए ई-कचरे को अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं को बेचने से रोकना होगा। अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं को ऐसा करने की बजाय स्वयं पुनर्चक्रण और जहरीले अपशिष्टों का निस्तारण करना चाहिए।

इन मूलभूत बातों पर अमल करते हुए हमारा सुझाव मौजूदा ईपीआर मॉडल में तीन सुधार करने का हैः एक अनिवार्य जमा वापसी योजना (डिपॉजिट रिफंड स्कीम), तीसरे पक्ष के द्वारा लेखा परीक्षण (ऑडिट) और एक सामान्य जमा खाता। 

पहला, अनिवार्य जमा वापसी (डीआरएस) उपभोक्ताओं को जीवन अवधि समाप्त हो चुके अपने उत्पादों को उत्पादक कंपनियों को वापस करने के लिए बाध्य करता है। उत्पादक ईईई की बिक्री के समय उपभोक्ताओं से थोड़ी अतिरिक्त राशि वसूल करता है जिसे आंशिक अथवा पूरी तरह उसी स्थिति में वापस किया जाता है जब उपभोक्ता जीवन अवधि समाप्त हो चुके ईईई को उत्पादक को वापस करता है।   

सरकार को एक स्पष्ट फैसला लेना होगा

एक अकेला उत्पादक डीआरएस लागू नहीं करेगा क्योंकि बाजार में प्रतिस्पर्धा की स्थिति में यह गैरलाभकारी होगा। सरकार को डीआरएस अनिवार्य रूप से लागू करने की जरूरत है न कि इसे वैकल्पिक रखने की।

वापस होने वाली जमा राशि को भी निश्चित करने की आवश्यकता है, अन्यथा निर्माता अपने उत्पादों की कीमतें बढ़ने से रोकने के लिए इसे शून्य के करीब निर्धारित कर देंगे। वापस की जाने वाली राशि सदैव ही अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं द्वारा दी जाने वाली कीमत से अधिक होनी चाहिए। ऐसा कर उपभोक्ताओं को अपना ई-कचरा कबाड़ी वालों को बेचने से रोका जा सकता है।

दूसरा, तीसरे पक्ष के द्वारा लेखा परीक्षण का कार्य किये जाने से ई-कचरे के प्रवाह पर बेहतर नियंत्रण किया जा सकेगा। वर्तमान व्यवस्था में, सरकार को यह सुनिश्चित करना होता है कि अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ता जहरीले अपशिष्टों को समुचित तरीके से निस्तारित कर रहा है या नहीं।

हालांकि, जांच करने का यह तरीका अबतक अप्रभावी ही रहा है। हमारे पास ऐसे अधिकृत उत्पादकों और पुनर्चक्रणकर्ताओं से संबंधित दस्तावेज हैं जो स्वयं के द्वारा संग्रहति ई-कचरे को अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं को बेच देते हैं। अनधिकृत पुनर्चक्रणकर्ता दूसरे अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं से एक निश्चित शुल्क चुकाकर प्रमाण पत्र प्राप्त करते हैं ताकि अपने लेन देन को नियमों के तहत सत्यापित करा सकें।

राज्यों की सीमित क्षमताओं के मद्देनजर, तीसरे पक्ष के लेखा परीक्षक बेहतर विकल्प हो सकते हैं। वर्ष 2013 में डफ्लो एट ऑल द्वारा गुजरात में किये गए एक प्रयोग ने यह दिखाया कि तीसरे पक्ष के द्वारा किये गए लेखा परीक्षण तब अधिक विश्वसनीय साबित हुए जब गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) ने प्रदूषण उत्सर्जन करने वाले फर्मों के लिए यादृच्छिक ढंग से चुने गए लेखा परीक्षक सौंपे।

जीपीसीबी ने केंद्रीय पूल से लेखा परीक्षकों को एक निश्चित धनराशि का भुगतान किया। इसका परिणाम प्रदूषण उत्सर्जन में कमी के रूप में देखने को मिला क्योंकि कंपनियां यह जानती थी कि जीपीसीबी को एक दम सही जानकारी प्राप्त हो रही थी।

और अंत में, सरकारी निगरानी के तहत एक सामान्य जमा खाते (कॉमन डिपॉजिट अकाउंट) में उपभोक्ताओं से डीआरएस के मद में एकत्र की गई राशि जमा कराई जाए। 

इस खाते के दो फायदे होंगेः पहला, उपभोक्ता ईईई की बिक्री करने वाले किसी भी उत्पादक से अपनी राशि वापस प्राप्त कर सकेंगे। वे किसी भी एप्पल के स्टोर में जाकर अपना सैमसंग फोन लौटा सकेंगे और अपनी जमा राशि की निकासी कर सकेंगे। दूसरा, सरकार अधिकृत पुनर्चक्रणकर्ताओं के पास जमा होने वाले ई-कचरे की मात्रा पर निगाह भी रख सकेगी। और इस बात की जांच भी हो सकेगी कि जहरीले एवं खतरनाक अपशिष्टों का समुचित निस्तारण हो रहा है। 

सरकारी हस्तक्षेप का स्पष्ट कारण ई-कचरे के अनुचित प्रसंस्करण के कारण उत्पन्न होने वाला प्रदूषण है। हालांकि मौजूदा ईपीआर मॉडल अपने वांछित परिणाम को हासिल करने में असफल रहा है। सरकार को अपने दूसरे कार्यकाल के पहले 100 दिनों के भीतर इस सुधार को लागू करने के लिए आवश्यक रूप से तैयार रहना चाहिए, जिससे कि लोग ‘नए भारत’ को देखने के लिए जीवित रहें। 

यह लेख मूल रूप में द क्विंट में प्रकाशित हुआ था।

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तारिणी सुधाकर
डिस्क्लेमर:

ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

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