यह सच है कि इंसान और समाज, दोनों ही लगातार पूर्णता की तरफ बढ़ते हैं। लेकिन जिस तरह कोई भी इंसान पूर्ण नहीं होता, उसी तरह सामाजिक व्यवस्थाएं भी पूर्ण नहीं होतीं। लोकतंत्र भी पूर्ण नहीं है। मगर अभी तक उससे बेहतर कोई दूसरी व्यवस्था भी नहीं है। यह भी सर्वमान्य सच है कि लोकतंत्र और बाजार में अभिन्न रिश्ता है। लोकतंत्र की तरह बाजार का पूर्ण होना भी महज परिकल्पना है, हकीकत नहीं। लेकिन बाजार से बेहतर कोई दूसरी प्रणाली नहीं। कितनी अजीब विडम्बना है कि व्यापक सामाजिक हितों की बात करनेवाले समाजवादी व साम्यवादी लोग व्यक्ति के ऊपर समाज को तरजीह देनेवाली इन दोनों ही व्यवस्थाओं को खारिज