समाजवाद एक बीमार विचारधारा है
Published on 3 Jun 2014 - 19:36

मार्क्स के दिमाग में एक बुनियादी रोग था। और वह रोग यह था कि वह चीजों को संघर्ष की भाषा में ही सोच सकता था, सहयोग की भाषा में सोच नहीं सकता था। द्वंद की भाषा (डायलेक्टीक्स) की भाषा में सोच सकता था। वह सारे विकास को कंफ्लिंक्ट की भाषा में सोच सकता था कि सारा विकास द्वंद है। यह पूरी तरह सच नहीं है। निश्चित विकास में द्वंदता एक तत्व है। लेकिन द्वंद विकास का आधार नहीं है, द्वंद से भी गहरा सहयोग विकास का आधार है। असल में द्वंद की वहीं जरूरत पड़ती है, जहां सहयोग असंभव हो जाता है।
द्वंद मजबूरी है, सहयोग स्वभाव है। और द्वंद भी अगर हमें करना पड़े तो उसके लिए भी हमें सहयोग करना पड़ता है। उसके बिना आप द्वंद भी नहीं कर सकते हैं। अगर मुझे आपसे लड़ना हो, और आपको मुझसे भी लड़ना हो तो आपको भी पच्चीस आदमियों का कोआपरेशन करना पड़ेगा। मुझे भी पच्चीस आदमियों का कोआपरेशन करना पड़ेगा। लड़ने के लिए भी सहयोग करना पड़ता है। लेकिन सहयोग के लिए लड़ना नहीं पड़ता है। इसलिए बुनियादी कौन है हम समझ सकते हैं। लड़ने के लिए सहयोग जरूरी है लेकिन सहयोग के लिए लड़ना जरूरी नहीं है। इसलिए बुनियादी कौन है?
बुनियादी कोआपरेशन है, कंफ्लिक्ट नहीं। बुनियादी सहयोग है द्वंद नहीं। क्योंकि बिना सहयोग के द्वंद संभव नहीं है। लेकिन बिना द्वंद के सहयोग संभव है। लेकिन मार्क्स के दिमाग में यह खयाल था कि सारी चीजें लड़कर विकसित हो रही हैं। असल में जितने भी लोग मानसिक अशांति से पीडित होते हैं वे, जगत में लड़ाई की भाषा में ही सोच पाते हैं।
असल में जीवन में जहां सहयोग चूक जाता है वहां लड़ाई प्रवेश करती है।जिंदगी लड़ाई नहीं है जिंदगी सहयोग है। और जहां जिंदगी सहयोग में असमर्थ हो जाती है वहां लडाई खड़ी करती है।लड़ाई बीमारी है स्वास्थ्य है नहीं।
द्वंद मनुष्य का सहज भाव नहीं है। द्वंद मजबूरी है ।कोई भी लड़ने को आतुर नहीं है,लड़ना हर हाल में मजबूरी है। लेकिन मजबूरी को मार्क्स नियम या कानून मानकर चलते हैं तो उन्होंने सारी जिंदगी को द्वंद में घेर लिया।इसलिए पिछले पचास वर्षों में जहां जहां मार्क्स के विचारों का प्रभाव हुआ ,वहां वहां जीवन के सभी तलों पर द्वंद हो गया।
समाजवाद की जीत इसी बात पर निर्भर है सहयोग सभी जगह टूट जाए। कहीं भी अगर सहयोग है तो समाजवाद की संभावना नहीं है। जहां भी सहयोग की थोड़ी भी संभावना है वहां समाजवाद की संभावना क्षीण हो जाएगी। इसलिए जब सब जगह सहयोग टूट जाए तो समाजवाद आ सकता है।
समाजवाद बहुत पैथोलाजिकल खयाल है, बहुत रोगग्रस्त खयाल है। अगर हम मनस विश्लेषण करे समाजवादी चित्त का तो हम पाएंगे कि यह आदमी परेशान है और यह अपनी परेशानी को सारे समाज पर थोप रहा है। और जिंदगी बहुत कुछ देखने पर निर्भर करती है। हम देखना शुरू कर देते हैं ,मानना शुरू कर देते हैं ,उसे हम खोज लेते हैं। वह जगह दिखाई पड़ने लगती है।
समाजवाद जिंदगी को द्वंद मानकर चलता है। खुद मार्क्स का ख्याल नहीं था मौलिक रूप से। मार्क्स बहुत मौलिक चिंतक है ऐसा मुझे दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन मार्क्स के पहले हेगल हुआ। हैगल का खयाल था कि दुनिया द्वंद से विकसित हो रही है। यह खयाल मार्क्स को भी पकड़ गया। हैगल तो कहता था कि विचारों के द्वंद से विकास हो रहा है ,मार्क्स ने उसको और पदार्थवादी बनाकर वर्ग का द्वंद और यथार्थ बना दिया।वर्गों के द्वंद से विकास हो रहा है।लेकिन कोई पूछे कि कम्युनिज्म के बाद क्या होगा? जब दुनिया में साम्यवाद आ जाएगा तो विकास नहीं हो सकता। कैसे विकास होगा? द्वंद किस किस में होगा।इसलिए समाजवाद की जो आखिरी सीढ़ी है साम्यवाद, उसके बाद दुनिया में कुछ नहीं होगा न गरीब बचेगा, न अमीर बचेगा।
समाजवाद व्यक्तिगत पर चोट है। संपत्ति से शुरू होगी,फिर जिंदगी के भीतर प्रवेश कर जाएगी।जिंदगी के भीतर प्रवेश करना स्वाभाविक है।इसलिए मैं मानता हूं कि समाजवाद बड़ी अस्वाभाविक, अप्राकृतिक, अमानवीय व्यवस्था है। मनुष्य जैसा है –पूंजीवाद आया है – पूंजीवाद लाया नहीं गया है।
यह थोड़ा सोचने जैसा है। पूंजीवाद आया है पूंजीवाद लाया नहीं गया है। यह कोई थोपा गया सिस्टम नहीं है मनुष्य के ऊपर। इसके लिए किन्हीं लोगों ने प्रचार करके, आंदोलन करके इंतजाम नहीं किया है। कोई क्रांति करके मनुष्य को समझा कर और कानून बनाकर पूंजीवाद नहीं आया है। पूंजीवाद विकसित हुआ है। समाजवाद को लाने की चेष्टा चल रही है । असल में उसी चीज को लाना पड़ता है जो आप्रकृतिक है –जो प्राकृतिक है, वह अपने आप आ जाती है।
- ओशो
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