जोखिम भरा सफ़र

कई सालों से भारतीय रेलवे को विश्व मानकों के अनुरूप ढालने का दम भरा जा रहा है। सुरक्षा संबंधी दावे भी बढ़-चढ़ कर किए जाते हैं। मगर हकीकत यह है कि आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से में गाड़ियों की आपसी टक्कर, उनके पटरी से उतरने, आग लगने आदि घटनाएं हो जाती हैं। पिछले साढ़े सात महीनों में करीब इक्यासी रेल दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें तीन सौ से ऊपर लोगों को जान गंवानी पड़ी है। हावड़ा-देहरादून एक्सप्रेस में लगी आग इस सिलसिले की ताजा कड़ी है। इसमें सात लोग मारे गए। यह घटना रात के समय हुई, जब सारे मुसाफिर गहरी नींद में थे।
रेल प्रशासन का कहना है कि अगर दिन का समय होता तो इस पर आसानी से काबू पाया जा सकता था। मगर इससे रेलवे की लापरवाही पर परदा नहीं डाला जा सकता। हैरानी की बात है कि इस गाड़ी के दो वातानुकूलित डिब्बों में आग फैल गई, मगर वहां तैनात परिचालक और सहायकों को आखिरी समय में ही पता चला। यात्रियों का कहना है कि उन्होंने धुएं की गंध की सूचना परिचालक को दी थी, मगर उसने गाड़ी रुकवाने में देर कर दी। पिछले दस सालों में सौ से ऊपर गाड़ियों में आग लगने की घटनाएं हो चुकी हैं। इसके मद्देनजर विशेषज्ञों की सलाह रही है कि वातानुकूलित डिब्बों में आग बुझाने का पुख्ता इंतजाम; डिब्बों की छतों, फर्श, सीटों की गद्दियों आदि में अग्निरोधी सामग्री और चेतावनी घंटी का इस्तेमाल होना चाहिए। मगर अभी तक इन पहलुओं पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया है।
हर साल रेल बजट में सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद बनाने के वादे किए जाते हैं। इससे जुड़ी परियोजनाओं पर आने वाले खर्च का ब्योरा भी पेश होता है। मगर इस बात की फिक्र नहीं की जाती कि वे परियोजनाएं समय पर पूरी हों। तीन साल पहले एकीकृत सुरक्षा प्रणाली लागू करने की योजना तैयार की गई थी। पिछले वित्तवर्ष के अंत तक इसे पूरा हो जाना था, मगर वह अभी प्रारंभिक चरण में ही है। यात्री सुरक्षा को लेकर रेलवे की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के मुताबिक इस मद में प्रति यात्री तीन रुपए से भी कम खर्च किया जाता है। सामान्य सावधानियों के मामले में भी ढिलाई नजर आती है। डिब्बों में अग्निरोधी सामग्री का इस्तेमाल और अग्निशमन यंत्र आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करना तो दूर, वातानुकूलन संयंत्र के स्विच आदि में ताला लगाना जरूरी नहीं समझा जाता।
मुसाफिर अपनी मर्जी के मुताबिक उनसे छेड़छाड़ करते रहते हैं। हावड़ा-देहरादून एक्सप्रेस में भी ऐसा ही हुआ। ठंड महसूस हुई तो किसी ने खुद उसे गरम करने की दिशा में घुमा दिया। अनुमान है कि इससे तारों के पिघल कर आपस में चिपकने और फिर चिनगारी निकलने से आग लग गई होगी। आज जब हर काम में कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग होने लगा है, इसके जरिए सुरक्षा के अनेक उपकरण संचालित होने लगे हैं, पता नहीं गाड़ियों की सुरक्षा के मामले में इसे आजमाने से रेलवे को हिचक क्यों है। यह देखा गया है कि चालकों, परिचालकों, स्टेशन अधीक्षक आदि के बीच तालमेल और सूचना का आदान-प्रदान न हो पाने और मुसाफिरों के पास संबंधित कर्मचारियों-अधिकारियों से संपर्क बनाने का कोई कारगर जरिया न होने के कारण हादसे हो जाते हैं, जबकि उन्हें टाला जा सकता था। सुरक्षा को लेकर रेलवे का यही रुख रहा तो इस सिलसिले पर विराम लग पाना मुश्किल होगा।
- साभार: जनसत्ता
- आज़ादी.मी टीम's blog
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