भारत की मार्केटिंग का सही तरीका: चेतन भगत
Published on 27 Nov 2014 - 14:56

तीन विषयों में प्रधानमंत्री को पूरे अंक दिए जा सकते हैं : उनकी वक्तृत्व कला, भारतीय विकास कथा को पश्चिम में पहुंचाने का जुनून और अमेरिकी राष्ट्रपति को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित करने का कूटनीतिक चातुर्य। हालांकि, मुझे नहीं मालूम की दो अन्य बातों की श्रेणी क्या है। एक तो तैयारी के पहली की इसकी टाइमिंग और दूसरा यह कि तीनों ही बातें पूरी एक ही व्यक्तित्व पर आधारित हैं। भारत की विकास कथा पर पश्चिम को राजी करना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के डोज के बूते तेजी से रोजगार पैदा करने, उत्पादन व प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने और इसके साथ होने वाली सारी अद्भुत बातें साकार करने का और कोई रास्ता नहीं है।
शेयर बाजार में खरीदी-बिक्री करने वालों का सीमित असर होता है। वास्तविक मदद तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से ही मिलती है, जो हमारी अर्थव्यवस्था में गहराई तक प्रवेश कर जाता है। हमें उनके पैसे की यहां आवश्यकता है जबकि उनके सामने इस निवेश को दुनिया में कहीं भी लगाने का विकल्प है। हम न सिर्फ यह चाहते हैं कि निवेशक हमें पसंद करें बल्कि यह भी कि वे हम पर भरोसा करके लंबी अवधि के लिए पैसा लगाएं। इसके लिए हमें अपना घर ठीक करना होगा। हमें भारत को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) लायक बनाना होगा। यह हमने अब तक नहीं किया है।
हालांकि, जमीनी स्तर पर निवेशक पाएंगे कि उनसे वादे कुछ ज्यादा ही कर दिए गए थे, लेकिन यहां व्यवसाय करना अपेक्षा से कहीं ज्यादा मुश्किल है। इससे भीतर कहीं कटुता पैदा हो जाती है। सबसे खराब बात तो यह है कि अगली बार वे ऐसे किसी भारतीय प्रचार पर भरोसा करने के पहले एहतियात बरतेंगे। यह तो वैसी ही बात हुई कि टूटे टॉयलेट और रिसती छत वाले किसी मकान को बाजार में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मकान के रूप में प्रचारित किया जाए। ठीक है प्रचार सुनकर ग्राहक आएंगे भी पर नजारा देखकर निराश ही होंगे। भारतीय वोटरों को भावनात्मक आधार पर आकर्षित किया जा सकता है (आमतौर पर ऐसा किया भी जाता है), लेकिन इसके विपरीत निवेशकों तोे अपने निर्णय तर्क और विशुद्ध आंकड़ों के आधार पर ही लेते हैं। ऐसा ही तो होना चाहिए ताकि पूंजी का सर्वाधिक कुशलता से उपयोग हो सके।
निवेशक स्थिरता को भी अत्यधिक तरजीह देते हैं। चूंकि वे पहले ही बिज़नेस के आधार पर पर्याप्त जोखिम ले चुके होते हैं, इसलिए वे और कोई जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं होते। मुख्यमंत्री बदलने अथवा राज्य या केंद्र सरकार में कोई फेरबदल होने का नतीजा सर्वथा नई नीतियों में नहीं होना चाहिए, जो भारत के बारे में निवेशकों की मूल धारणा को ही नष्ट कर दे। सिर्फ इसलिए नए टैक्स थोप देना या अदालती मामले शुरू कर देना, क्योंकि सत्ता में आए नए महिला-पुरुष अपना अधिकार दिखाना चाहते हैं, से कोई मदद नहीं मिलने वाली।
पिछले हफ्ते हुई मुलाकात में एक अरबपति उद्योगपति ने एक उपमा दी, जो मैं उन्हीं के शब्दों में पेश करता हूं, ‘भारत सरकार निवेशकों के साथ बहू की तरह व्यवहार करती है। वह उन्हें बड़ी धूमधाम से अपने घर लेकर आती है, लेकिन धीरे-धीरे वह उसकी गर्दन पर सवार होकर उसका दम घोटने लगती है।’ हमारी व्यवस्था के बारे में यह धारणा है तो जोर-शोर से किए जा रहे मार्केटिंग अभियान से क्या हासिल होने वाला है?
मार्केटिंग की कक्षा में जो शुरुआती बातें सीखने को मिलती है उसमें से एक है मार्केटिंग के चार ‘पी’ यानी प्रोडक्ट, प्राइस, प्लेस और प्रमोशन। पहला पी तो खुद प्रोडक्ट ही है और मार्केटिंग का हिस्सा है। यदि प्रोडक्ट यानी उत्पाद ही सही न हो तो आप मार्केटिंग पर बेवजह समय और धन बर्बाद कर रहे हैं। इससे भी खराब बात तो यह है कि मार्केटिंग के कुछ आइटमों में एक बार ही नजर आने वाली नवीनता होती है, जो ज़ाया हो जाती है।
विदेश में अनिवासी भारतीयों से खचाखच भरे स्टेडियम में पहला भाषण बड़ी सनसनी पैदा कर देगा, लेकिन ऐसा ही दसवां भाषण बेअसर रहेगा। एक महत्वपूर्ण विश्व नेता का गणतंत्र दिवस पर आगमन भारत के प्रति कुछ आकर्षण पैदा करने में कामयाब हो सकता है, लेकिन ऐसे आठवें नेता की भारत यात्रा आकर्षित नहीं करेगी। ‘मेक इन इंडिया’ के पूरे पेज के विज्ञापन पहली बार तो देखे जाएंगे, लेकिन दो साल बाद दोहराए गए तो लोग शायद ही उस पर निगाह डालेंगे।
इसका एक और उदाहरण है। हमारे पर्यटन विभाग ने ‘अतुल्य भारत’ का अभियान चलाया था, जिसमें विज्ञापनों पर खूब पैसा खर्च किया गया। हालांकि, जमीनी हालात ये थे कि पर्यटकों को वीज़ा हासिल करने, टैक्सी से सुरक्षित यात्रा करने और पर्यटन स्थलों पर टॉयलेट खोजने में भयंकर मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। हमने इन सब समस्याओं को दूर नहीं किया और विज्ञापन अभियान में कूद पड़े। नतीजा यह है कि चीन में हर साल 5.70 करोड़ पर्यटक आ रहे हैं और हम 70 लाख के आंकड़े पर पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं (चीन हमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में भी मात दे रहा है और हमारी तुलना में कई गुना ज्यादा एफडीआई आकर्षित कर रहा है)।
ऐसे में क्या करने की जरूरत है? सबसे पहले तो हमें पूरी ईमानदारी से व्यवस्था के स्तर पर सरकार को बिज़नेस से बाहर निकाल लेना चाहिए। ‘बिज़नेस अनुकूल सरकार’ और ‘बिज़नेस अनुकूल वातावरण’ में बहुत बड़ा अंतर है। फिर चाहे सत्ता में कोई भी सरकार क्यों न हो। सत्ता में बैठे लोग तो बदल जाते हैं, लेकिन निवेशकों का पैसा लंबे समय तक अटका रहता है। देश को चला रहे लोगों के व्यक्तित्व में बदलाव से बिज़नेस प्रभावित नहीं होना चाहिए। अभी तो यही हो रहा है। लालफीताशाही का जबर्दस्त बोलबाला है, करों का ढांचा अत्यधिक जटिल है, शत्रुतापूर्ण रवैये वाला कर विभाग है और दर्जनों अनुमतियां लेनी पड़ती हैं। फिर मोटेतौर पर यह धारणा है कि बिज़नेस करने वाले लोग बुरे होते हैं।
इसे बदलने की जरूरत है। हमें बिज़नेस को नैतिकता आधारित गतिविधि के रूप में देखना होगा। यह देश के लिए बहुत सकारात्मक बात होगी। यह नए कानूनों, प्रक्रियाओं, नौकरशाही के रवैये और यहां तक कि सारे नागरिकों के व्यवहार में भी झलकना चाहिए। जब तक हम आंतरिक रूप से खुद पर काम नहीं करते, दुनिया को लुभाने के प्रयास व्यर्थ ही रहेंगे। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा प्रधानमंत्री के प्रयासों का एकल चरित्र। शायद यह भाजपा की रणनीति है कि भारत में जो भी सकारात्मक बदलाव हो रहा है उसके चेहरे के रूप में मोदी को प्रस्तुत किया जाए। हालांकि, वैश्विक निवेशकों पर एक ठोस, प्रतिभाशाली टीम का ही जादू चल सकता है। ऐसी टीम, जो वैचारिक व अवधारणा के समान स्तर पर हो और जिसमें प्रधानमंत्री के विज़न को साकार कर दिखाने की योग्यता हो।
इसलिए मार्केटिंग के क्षेत्र में घोड़े दौड़ाने पर लगाम लगाइए और पहले प्रोडक्ट यानी खुद देश को व्यवस्थित कीजिए। फिर जब हम वाकई बिज़नेस के लिए तैयार हो जाएंगे, हमारी विकास कथा को बेचने में लग जाइए। प्रदर्शन के लिए रखने के पहले हीरे को चमकाना-निखारना हमेशा ही फायदेमंद होता है।
- चेतन भगत (अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार)
साभारः दैनिक भास्कर
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