खुले में आए राजनीति और कॉरपोरेट का रिश्ता


अमेरिका की तरह अब भारत में भी कॉरपोरेट चुनावी राजनीति से खुद को जोड़ने में खुलकर आगे आ रहा है। पिछले दिनों कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कॉरपोरेट संगठन सीआईआई के मंच पर अपनी बात रखी। इसके तुरंत बाद दूसरे कॉरपोरेट संगठन फिक्की ने बीजेपी के सीनियर नेता नरेंद्र मोदी को अपना मंच मुहैया कराया। नरेंद्र मोदी को आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखा जा रहा है। इन दोनों को भरपूर मीडिया कवरेज मिला। कारण इनका भाषण नहीं बल्कि वे मंच थे, जहां इन्होंने अपने विचार प्रस्तुत किए थे। इन दोनों नेताओं को इस बात अहसास का था कि वे कॉरपोरेट मंच पर आये हैं। लोगों की उम्मीद उनसे उनकी आर्थिक सोच जानने की है। यही कारण है कि उन्होंने परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अपने आर्थिक अजेंडे का खुलासा किया। इसी पैमाने पर इनके संबोधन को तौला भी गया।
छिपाने को क्या है
दोनों नेता दो बड़ी नैशनल पार्टियों से संबंध रखते हैं। ऐसे में उनकी आर्थिक सोच को सीधे तौर पर उनकी पार्टियों की सोच से जोड़ा गया। इससे एक बात साफ हो गई है कि कांग्रेस और बीजेपी की आर्थिक नीतियां किस दिशा में जा रही हैं। इसे एक बड़े बदलाव के रूप में देखा जा सकता है। चुनाव से पहले पार्टियों की आर्थिक सोच सामने आ रही हैं। ऐसे में अब वोटरों के पास देश और अपनी आर्थिक बेहतरी के हिसाब से नेता चुनने का विकल्प सामने होगा। कहा जाता है कि न तो देश की राजनीति कॉरपोरेट के बगैर चल सकती है, न ही चुनाव हो सकते हैं। यह कोई छिपाने वाली बात नहीं है कि देश की आर्थिक नीतियां तय करने में कॉरपोरेट सेक्टर अहम भूमिका निभाता है। इस बात को अमेरिका ने माना और अपनाया है और अब भारत की बारी है। यहां इसकी शुरुआत हो चुकी है। इसको नेगेटिव रूप में लेने वालों की यह राय हो सकती है कि कुछ चीजें छिपी रहें तो ही बेहतर हो सकती हैं। लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि जो चीजें छिप नहीं सकती हैं, उनको सामना लाना ही बेहतर होता है।
ओबामा ने जो किया
अगर कॉरपोरेट सीधे तौर पर राजनीति से जुड़ता है तो एक बात साफ है कि चुनावों में आर्थिक अजेंडा सर्वोपरि होगा। चुनावी भाषण अगर किसी मैदान में न होकर कॉरपोरेट मंच पर होगा तो उसमें नेताओं को अपनी बात को सटीक ढंग से रखना होगा। वादों और इरादों से ज्यादा उन्हें भविष्य को लेकर वे ठोस बातें कहनी होंगी, जिनके आधार पर उनको वोट मिल सकते हैं। सबसे अहम बात यह कि कॉरपोरेट नेताओं से सीधे तौर पर मार्केट से जुड़ी नीतियों की ख्वाहिश रखेगा। तब आम आदमी भी यह जान सकेगा कि पार्टियां किस तरह की नीतियां लाना चाहती हैं। साथ में वह यह भी जान जाएगा कि कॉरपोरेट उसका दुश्मन नहीं बल्कि उसको लेकर पर्याप्त संवेदनशील है, या कम से कम यह कि कॉरपोरेट मार्केट के जरिये आम आदमी का भला चाहता है। इसके साथ ही कॉरपोरेट का यह पक्ष भी खुलेगा कि ये घराने राजनीति में अपना दबदबा दिखाकर अपने लिए कितना फायदा उठा रहे हैं और देश को कितना फायदा पहुंचा रहे हैं। यह बात आम तौर पर प्रचलित है कि कॉरपोरेट राजनेताओं पर दबाव बनाता है। मगर अगर दोनों खुले मंच पर एक साथ दिखें तो राजनेता भी कॉरपोरेट पर दबाव बना सकते हैं।
इसका दूसरा पक्ष यह है कि अगर कॉरपोरेट और राजनीति का संबंध सीधे तौर पर हो, उनका जुड़ाव छिपा हुआ न हो तो देश की इकॉनमी को आगे बढ़ाने या उसे किसी प्रकार की मुसीबत से बाहर निकालने में कॉरपोरेट का उत्तरदायित्व बढ़ जाएगा। अमेरिकी प्रेसिडेंट ओबामा ने अपने यहां इसी पक्ष को उबारा। एक आम की अमेरिकी आमदनी बढ़ाने तथा देश की आमदनी और खर्चों के बीच अंतर को कम करने के लिये उनके पास अमीरों से ज्यादा टैक्स वसूलने का प्रस्ताव था। वे कॉरपोरेट के मंच पर गए। सीधे बोले कि देश को इस वक्त ज्यादा टैक्स की जरूरत है। क्या कॉरपोरेट (और बाकी अमीर तबका) ज्यादा टैक्स देने को तैयार है। बात खुले तौर पर बात पूछी गई थी, पूरा देश इस संवाद को देख और सुन रहा था तो कॉरपोरेट ने हामी भर दी। फिर तो अमेरिका में यह चर्चा का विषय बन गया कि कॉरपोरेट किस तरह से राजनीति में पाजिटिव भूमिका निभा सकता है। इस तरह ओबामा ने अपना काम कर दिया। भारत में मौजूदा समय में कुछ खास कदम उठाने से पहले राजनेता कॉरपोरेट से सलाह लेते हैं। लेकिन ये संवाद बंद कमरों में होते हैं। अगर राजनीति और कॉरपोरेट का संबंध खुला हो तो सारी बातें देश के लोगों के सामने आएगी। राजनेताओं के साथ कॉरपोरेट के नुमाइंदे भी अपने उत्तरदायित्वों को बेहतर तरीके से निभा पाएंगे।
ऐसे ही बनेगी जवाबदेही
अभी जो कुछ भी होता है, बैक डोर से होता है। चुनाव प्रचार के लिए कंपनियां अपने फंड से चंदा देती हैं, मगर इसमें न तो खुलापन है, न जवाबदेही। बातें खुले तौर पर होंगी तो कंपनियों की जवाबदेही तय होगी। खुलकर संवाद होंगे और फैसले भी खुलकर लिए जा सकेंगे। इसमें कॉरपोरेट का भी फायदा है। वह अगर खुलकर राजनीति में आता है तो उसके पास अपनी बात रखने की ज्यादा छूट होगी और ज्यादा अवसर भी। कॉरपोरेट की आम आदमी के साथ राजनेताओं की मजबूरियां भी पता होंगी। दूसरी तरफ राजनेता भी कॉरपोरेट की मजबूरियां जान पाएंगे। इस संदर्भ में एक खास बात यह कही जा सकती है कि कॉरपोरेट अपने प्रोडक्ट के जरिये मार्केट में आम लोगों (ग्राहकों) से जुड़ता है। मगर राजनीतिक प्रक्रिया में खुलकर हिस्सा लेने से कॉरपोरेट और आम लोग एक दूसरे के ज्यादा पास आएंगे। यह बात राजनीतिक दलों और उद्योग जगत के साथ-साथ देश के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगी।
- जोसेफ बर्नार्ड
साभारः नवभारत टाइम्स
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