काला कानून कौन? अंग्रेजों का एपीएमसी या नए कृषि कानून!

कृषि की दशा और किसानों की आर्थिक अवस्था में सुधार के उद्देश्य से देश में तीन नए कानून बनाए गए हैं। ये कानून हैं कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020। सरकार के मुताबिक पहले विधेयक का उद्देश्य एक ऐसे इकोसिस्टम का निर्माण करना है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फसल बेचने और खरीदने की आज़ादी होगी। दूसरे विधेयक का उद्देश्य कृषि करारों के संबंध में एक राष्ट्रीय तंत्र की स्थापना करना है जहां कृषि उत्पादों की बिक्री, फार्म सेवाओं, कृषि व्यवसाय से जुड़े फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जोड़ने के लिये उन्हें सशक्त बनाना और तीसरे विधेयक का उद्देश्य अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन सहित आलू-प्याज आदि को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाना है।
इन कानूनों के विरोध में बड़ी संख्या में किसान पिछले 50 दिनों से आंदोलनरत हैं और उन्हें तीनों कानूनों को वापस लिए जाने से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। किसान नेता और संगठन इसे काले कानून की संज्ञा दे रहे हैं विरोध स्वरूप गणतंत्र दिवस के अवसर पर ट्रैक्टर मार्च निकालने की धमकी दे रहे हैं। लेकिन ऐसा करके वे अपना नुकसान ही कर रहे हैं। काले कानून दरअसल वे पुराने कानून थे जो किसानों को कई प्रकार के प्रतिबंधों वाली बेड़ियों में जकड़ने का काम काम कर रहे थे। इनमें से अधिकांश कानून ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए थे जिनका उद्देश्य भारतीय संसाधनों का दोहन कर अपना हित साधना था। वर्तमान का एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति कानून) एक्ट मुख्य हैं। इस कानून को अंग्रेजों ने उच्च गुणवत्ता वाले भारतीय कपास को मैनचेस्टर स्थित कपड़ा मिलों तक पहुंचाने और इस कार्य को जारी रखने के लिए बनाया था। किसानों को सस्ते दर पर कपास बेचने के लिए मजबूर करने के लिए अंग्रेजों ने सरकारी मंडी के माध्यम से खरीद बिक्री को आवश्यक बनाया। हैदराबाद में सबसे पहली सरकारी मंडी 1886 में स्थापित किया गया। मंडी के बाहर कपास बेचने की मनाही थी और ऐसा करने पर क्रेता और विक्रेता दोनों को प्रताड़ित किया जाने लगा। अपनी योजना को सफल होता देख अंग्रेजों ने कुछ चुनिंदा अनाजों की खरीद बिक्री पर भी यह नियम लागू कर दिया। 1887 में बेरार कॉटन एंड ग्रेन मार्केट एक्ट के नाम से इसे कानूनी रूप दिया गया। यह कानून विवाद का कारण भी बना क्योंकि यह ब्रिटिश अधिकारियों को किसी भी जिले को मंडी कानून के अधीन घोषित करने की आजादी और वहां सरकारी समिति गठित करने की अनुमति देता था। बड़ी चालाकी से इस कानून को किसानों को निजी व्यापारियों के हाथों शोषण से बचाने का तंत्र बताया गया। इस नारे को स्वतंत्रता के बाद की सरकारें भी इस्तेमाल करती रहीं।
- अंग्रेजों ने ब्रिटिश कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाया था यह कानून
- भारत से कपास को मैनचेस्टर के कपड़ा मिलों तक पहुंचाने के लिए भारतीय किसानों को किया जाता था मजबूर - आधिकारिक तौर पर पहली सरकारी मंडी 1886 में हैदराबाद में स्थापित की गई - 1887 में बेरार कॉटन एंड ग्रेन मार्केट एक्ट के नाम से इसे कानूनी रूप दिया गया। कानून ब्रिटिश अधिकारियों को किसी भी जिले को मंडी कानून के अधीन घोषित करने की आजादी देता था - 1928 में गठित रॉयल कमिशन की सिफारिशों के आधार पर 1938 में इसे पूरे देश में लागू करने का प्रयास शुरू किया गया - वर्ष 2015 तक देश में कुल कृषि मंडियों की संख्या 6746 थीं। पंजाब में प्रति 118.78 वर्ग किमी पर एक मंडी की व्यवस्था थी - मेघालय में 11215 वर्ग किमी में एक मंडी थी जबकि पूरे देश में कृषि मंडी की उपलब्धता औसतन 487.40 वर्ग किमी थी - राष्ट्रीय किसान आयोग (2004) की सिफारिशों के मुताबिक प्रति 80 वर्ग किमी पर एक कृषि मंडी की आवश्यकता |
देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने और कर्मचारी वर्ग को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने के लिए खाद्यान्नों की कीमतों को कृत्रिम रूप से कम रखा गया। अन्य क्षेत्रों में कार्यरत लोगों की आय जहां लगातार अंतराल पर बढ़ती रही वहीं किसान मुफलिसी में जीने को मजबूर रहें। इस क्षेत्र से आधुनिक तकनीकी और निवेश दूर ही रहा परिणाम स्वरूप देश में अनाज उत्पादन की गति उस तेजी से नहीं बढ़ी जिस तेजी से बढ़नी चाहिए थी। 60 के दशक के कुख्यात खाद्यान्न संकट से उबरने के लिए देश में हरित क्रांति की शुरुआत की गई। इस दौरान पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने न्यूनतम समर्थन मूल्य वाले प्रावधान की शुरुआत की। 1966 में पहली बार गेंहू और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किये गए थे। इस फैसले का शुरुआती परिणाम शानदार रहा। अनाज आयात करने के स्थान पर देश में इतना खाद्यान्न पैदा होने लगा कि हम इसे निर्यात करने की स्थिति में पहुंच गए।
इसके बाद से स्थिति बिगड़ने लगी। खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो जाने के बाद जहां एपीएमसी और एमएसपी जैसे प्रावधानों को समाप्त कर देना चाहिए था वहीं इसके उलट एमएसपी की कीमतें राजनीतिक लाभ हानि के आधार पर तय होने लगीं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि निश्चित आय की लालच में किसान ऐसे अनाज पैदा करने लगे जो उस राज्य की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थे। पानी की कमी से जूझने वाले हरियाणा व पंजाब के किसानों द्वारा चावल उत्पादन इसका एक उदाहरण है। परिणामस्वरूप सरकारी गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं बची और अतिरिक्त अनाज को खुले में रखने को मजबूर होना पड़ता है। इससे अनाज सड़ने व बर्बाद होने लगें।
बदकिस्मती से, 1991 में मिली आर्थिक आजादी का फायदा सभी नागरिकों को नहीं मिला। इसने मुख्य रुप से औपचारिक औद्योगिक क्षेत्र को लाइसेंस-परमिट-कोटा राज से मुक्ति दिलायी। लेकिन आर्थिक सुधारों के दायरे में आबादी का एक बड़ा हिस्सा नहीं आया जो अपनी आजीविका औपचारिक औद्योगिक क्षेत्र के बाहर कमाता था। किसान सुधारों का इंतजार करते रहे हैं। हालांकि हाल में पारित हुए तीन कृषि सुधार विधेयकों ने आखिरकार किसानों को आर्थिक आजादी दे दी। अब किसान सरकार के नियंत्रण वाली मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच पाएंगे। बहुत सारे लोग हालांकि यह दलील देते हैं कि ये कृषि कानून सरकार के अपना पल्ला झाड़ने की दिशा में उठाया गया महज पहला कदम है और वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था ही खत्म कर देगी। हालांकि इन कानूनों का एमएसपी की संरचना से कुछ लेना-देना नहीं है। असल में एमएसपी प्रशासन के हाथों लिया जाने वाला एक सालाना फैसला है। ऐसा कोई कानून नहीं है जो सरकार को एमएसपी की घोषणा करने के लिए बाध्य करता हो। भले ही कानून ऐसी जिम्मेदारी तय नहीं करता, सभी राजनीतिक दलों की सरकारें बिना किसी रुकावट के एमएसपी की घोषणा करती आयी हैं। राजनीतिक फैसला एमएसपी की राशि से जुड़ा हुआ है, ना कि एमएसपी की घोषणा करने से। हालांकि हमारा मानना है कि एमएसपी किसानों की मदद करने का सबसे बुरा संभव तरीका हैं। किसान हमेशा नेताओं की दया पर निर्भर रहते हैं जैसे कि एमएसपी की राशि क्या होगी, इसके दायरे में कौन कौन से फसल आएंगे, एमएसपी की घोषणा कब की जाएगी, एमएसपी पर असल में कितनी फसल खरीदी जाएगी आदि आदि। इसकी बजाए, देश को एक आय आधारित मदद की तरफ बढ़ना चाहिए।
दूसरी बात, कृषि कानूनों का विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि इन सुधारों से किसानों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा क्योंकि महाराष्ट्र और बिहार जैसे कई राज्य पहले ही इस तरह की कोशिश कर चुके हैं और सही नतीजे हासिल करने में नाकाम रहे हैं। राज्य स्तर पर किए गए संशोधन अलग-अलग आकारों के हैं। उनमें से कई मंडी थोक बाजारों के संचालन की आजादी तो देते हैं लेकिन भारी जिम्मेदारियां लादते हैं जो किसी भी भावी उद्यमी को हतोत्साहित करती है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र को ले लें जहां मंडी शुरू करने के लिए दो करोड़ रुपए का डिपॉजिट और 10 एकड़ का भूखंड चाहिए होता है। अब हैरानी नहीं होनी चाहिए कि नयी मंडियां क्यों नहीं आयीं? राज्यों के कानून से राज्यों की सीमाओं के बाहर व्यापार खोलने की व्यवस्था नहीं हो सकती, इसलिए असर राज्य के अपने बाजार तक ही सीमित रहता है। बिहार में धान की खेती करने वाले किसानों के लिए राज्य के कानून में किए गए सुधारों के बाद बाजार केवल बिहार ही बना रहता है। केवल एक केंद्रीय कानून ही सीमाओं के परे व्यापार को खोल सकता है। हमें सभी किसानों और सभी कृषि उपजों के लिए बाजार के तौर पर पूरा भारत चाहिए। एक राष्ट्रीय कृषि बाजार से बड़े रिटेल चेन आकर्षित होंगे, भंडारण क्षमता सुधरेगी एवं रसद सामग्री का प्रबंधन सुधरेगा और अंतरराष्ट्रीय बाजार तक भी पहुंच होगी।
तीसरी बात, कुछ लोगों की दलील है कि ये सुधार संघवाद के खिलाफ हैं। आजादी को संघवाद पर वरीयता मिलनी चाहिए। अगर मौजूदा राज्य कानूनों की तुलना में कोई संघीय कानून ज्यादा आजादी देता है, लोगों एवं व्यापारों के लिए ज्यादा अवसरों का सृजन करता है तो हमें इस तरह के संघीय कानून का हमेशा स्वागत करना चाहिए। लोगों की आजादी किसी भी राज्य के अधिकारों से बढ़कर है।
और चौथी बात इस दलील को लेकर है कि ये सुधार कृषक समुदाय को कॉरपोरेट के लालच और शोषण का शिकार बना सकते हैं। किसानों का आज मंडियों में फायदा उठाया जाता है। हम इन मंडियों को क्या कहेंगे? भाईचारे की जगह? मंडियां व्यापार हैं, चाहे वह समाज, सहकारी समितियों या कॉरपोरेट के रुप में ही क्यों न हों। ये सुधार किसानों को आज मिलने वाले विकल्पों को कम नहीं करते, वे असल में उन्हें बढ़ाते हैं। अगर नये विकल्पों के तहत कॉरपोरेट के रुप में खरीददार बेहतर कीमत नहीं देते तो किसानों के पास हमेशा मंडियों में जाने का विकल्प मौजूद होगा। सबसे बुरा नतीजा यह हो सकता है कि सुधारों के बाद किसानों की स्थिति न बदले लेकिन उनकी आज जो हालत है, उससे बुरा कुछ और क्या हो सकता है।
- अविनाश चंद्र (लेखक आजादी.मी के संपादक हैं)
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