आयन रैंड

लेखक

आयन रैंड का जन्म 2 फरवरी, 1905 को रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ था। छह वर्ष की उम्र में खुद ही पढ़ना सीख लेने के दो साल बाद उन्हें बच्चों की एक फ्रांसीसी मैगजीन में अपना पहला काल्पनिक (फिक्शनल) हीरो मिल गया। हीरो की एक ऐसी छवि जो ताउम्र उनके दिलो-दिमाग पर चस्पां रही। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने कल्पना आधारित लेखन को ही अपना कैरियर बनाने का फैसला कर लिया। रूसी संस्कृति के रहस्यवाद और समूहवाद की मुखर विरोधी आयन खुद को यूरोपियन लेखकों की तरह मानती थीं, खासतौर पर अपने सबसे पसंदीदा लेखक विटर ह्यूगो से सामना होने के बाद।

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सरकार का स्वरूप - आयन रैंड

आयन रैंड का जन्म 2 फरवरी, 1905 को रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ था। छह वर्ष की उम्र में खुद ही पढ़ना सीख लेने के दो साल बाद उन्हें बच्चों की एक फ्रांसीसी मैगजीन में अपना पहला काल्पनिक (फिक्शनल) हीरो मिल गया। हीरो की एक ऐसी छवि जो ताउम्र उनके दिलो-दिमाग पर चस्पां रही। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने कल्पना आधारित लेखन को ही अपना कैरियर बनाने का फैसला कर लिया। रूसी संस्कृति के रहस्यवाद और समूहवाद की मुखर विरोधी आयन खुद को यूरोपियन लेखकों की तरह मानती थीं, खासतौर पर अपने सबसे पसंदीदा लेखक विटर ह्यूगो से सामना होने के बाद।

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सरकार एक संस्था है, जिसके पास नियत भौगोलिक क्षेत्रों में, सामाजिक आचारों के कुछ नियत नियमों को लागू करने की शक्तियां होती हैं। क्या व्यक्ति को ऐसी संस्था की जरूरत है? और है तो क्यों?

व्यक्ति का मस्तिष्क उसके जीवित रहने का आधारभूत साधन है। इसके माध्यम से वह ज्ञान की प्राप्ति करता है, जिसके द्वारा उसके सभी कार्य निदेशित होते हैं। लेकिन इन सब के लिए आधारभूत शर्त यह है कि वह स्वतंत्र रूप से सोच सके और अपनी विवेकपूर्ण निर्णय शक्ति के अनुसार काम कर सके। इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति बिलकुल अकेला रहे और उसकी आवश्यकताओं के लिए एकांत स्थान ही सर्वोत्तम स्थल है। मनुष्य एक दूसरे से ढेरों लाभ ले सकते हैं। उसके भली प्रकार रहने के लिए सामाजिक वातावरण सबसे उत्तम है, लेकिन, वह भी कुछ शर्तों के साथ...

'समाज में रहकर मनुष्य दो महत्वपूर्ण मूल्यों को सीखता है, वह है- ज्ञान और उसका आदान-प्रदान। मनुष्य अकेला ऐसा प्राणी है जो पीढ़ी-दर-पीढी अपने ज्ञान के खजाने का आदान-प्रदान कर इसे बढ़ा सकता है। प्रत्येक मनुष्य दूसरों द्वारा अनुसंधान किए गए ज्ञान से, असीमित लाभ ले सकता है। कोई भी व्यक्ति अपनी पूरी जीवन अवधि के दौरान जितना कुछ नये सिरे से सीखने की शुरूआत करता है उससे कहीं ज्यादा, उसके लिए पहले से उपलब्ध रहता है। दूसरा महत्वपूर्ण लाभ है- श्रम का विभाजन। इसके कारण, प्रत्येक व्यक्ति किसी निर्धारित क्षेत्र में अपने कार्य करता है और दूसरे क्षेत्र के लोगों के साथ इसका आदान-प्रदान करता है। इस तरह के सहयोग से व्यक्ति, उससे कहीं बहुत अधिक ज्ञान और कौशल अर्जित कर पाता है, जितना वह अपनी प्रत्येक जरूरतों के लिए, अकेला ही सब कुछ करके, एकांत स्थान में रह कर, प्राप्त करता। लेकिन इससे यह पता चलता है कि इस तरह के सहयोग, किस तरह, मूल्यों वाले लोगों एवं समाज के बीच हो सकते हैं- वे हैं, सिर्फ विवेकपूर्ण, क्रियाशील एवं स्वतंत्र समाज के विवेकपूर्ण, क्रियाशील एवं स्वतंत्र लोगों के बीच।(द ऑब्जेक्टिव एथिक्स ''इन द वर्च्यू ऑफ सेल्फिशनेस'')

वह समाज, जो व्यक्ति के अपने प्रयासों से अर्जित सब कुछ ले ले, उसे अपना दास बना कर रखे, उसके मस्तिष्क की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाये और व्यक्ति को उसकी विवेकपूर्ण निर्णय शक्ति के विरुद्ध काम करने के लिए बाधित करे तथा जो व्यक्ति की जरूरतों और अपने आदेशों के बीच विरोध पैदा करे, निश्चित तौर पर ही वह समाज नहीं वरन अव्यवस्थित जन समूह (भीड़) है जो आपराधिक नियमों द्वारा संस्थापित है। ऐसा समाज मनुष्य के सह अस्तित्व के सभी मूल्यों को नष्ट कर देता है। इसके पास न तो कोई औचित्य होता है, न प्रतिवेदन, और न ही भलाई के कोई साधन । ये मनुष्य के बहुत ही बड़े दुश्मन होते हैं। वीरान स्थल पर जिन्दगी ज्यादा सुरक्षित है, बजाय सोवियत रूस या नाजी जर्मनी के।

वैयक्तिक अधिकारों का सिध्दांत-

यदि व्यक्ति शांतिपूर्ण, क्रियाशील एवं विवेकपूर्ण समाज में आपसी हित के लिए साथ रहना चाहे तो उसे कुछ आधारभूत सामाजिक नियमों को अवश्य मानना होगा। इसके बगैर किसी नैतिक या सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।

वैयक्तिक अधिकारों को मान्यता देने का अर्थ है कि व्यक्ति के जीवित रहने के लिए जो सामाजिक जरूरतें हैं, उनको मान्यता देना और स्वीकार करना। व्यक्ति के अधिकारो का उल्लंघन सिर्फ शारीरिक बल प्रयोग द्वारा ही किया जा सकता है। इन शारीरिक बलों द्वारा ही एक व्यक्ति दूसरे का जीवन समाप्त कर सकता है या उसे दास बना सकता है या लूट सकता है या उसे अपने लक्ष्यों तक पहुँचने से रोक सकता है या उसकी विवेकपूर्ण निर्णय शक्ति के विरुद्ध काम करने के लिए बाधित कर सकता है।

एक सभ्य समाज की अनिवार्य शर्त यह है कि सामाजिक संबंधों में शारीरिक बलों का प्रयोग न हो ताकि व्यक्ति यदि एक-दूसरे के साथ संबंध रखना चाहता हैं तो वह ऐसा कर सके। लेकिन कुछ तरीकों से जैसे विचार-विमर्श, स्वेच्छा से, रजामंदी और इच्छापूर्ण सहमति से।

व्यक्ति के जीवन के अधिकार के तहत मिलने वाला सबसे महत्वपूर्ण अधिकार आत्मरक्षा का अधिकार है। सभ्य समाज में बल का प्रयोग सिर्फ जवाबी कार्रवाई के तौर पर या उनके खिलाफ किया जाता है जो इसकी पहल करते हैं। वे सभी कारण जिनके आधार पर शारीरिक बलों के प्रयोग की शुरूआत होती है, गलत होते हैं। यहां शारीरिक बल का इस्तेमाल नैतिक अनिवार्यता बन जाती है।

यदि कोई शांतिप्रिय समाज किसी के द्वारा बल का इस्तेमाल किये जाने पर भी, उसके खिलाफ कार्यवाही नहीं करता है तो फिर वह समाज अनैतिक कार्य करने वाले की मर्जी पर और असहाय है। इस तरह का समाज बुराइयों को खत्म करने के उद्देश्य को हासिल करने के बजाय इसका विपरीत हासिल करेगा। ऐसा करके वह गलत को बढ़ावा दे रहा है, उसका समर्थन कर रहा है। यदि कोई समाज किसी बल के खिलाफ नागरिकों को संगठित सुरक्षा नहीं प्रदान कर रहा, इसका अर्थ यह है कि वह प्रत्येक नागरिक को शस्त्र उठाने और अपने घर की किलेबंदी करने या किसी भी अजनबी को यदि वह उसके दरवाजे तक आता है तो मार देने के या नागरिकों के संरक्षक समूह में शामिल होने के लिए, जो दूसरे से बदला लेने के लिए बने है, मजबूर कर रहा है। इसके नतीजतन समाज का पतन होता है और अपराधियों का शासन हो जाता है, और अपराधी समूहों के बीच युद्ध की स्थिति बनी रहती है।

शारीरिक बल के इस्तेमाल को भी व्यक्ति विशेष के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। यदि व्यक्ति लगातार बल प्रयोग के भय के बीच रह रहा हो जो उसके खिलाफ कोई भी पड़ोसी किसी भी समय इस्तेमाल कर सकता है तो ऐसे में शांतिर्पूण सहयोग असंभव है। चाहे पड़ोसी का उद्देश्य अच्छा हो या बुरा, चाहे उसका निर्णय विवेकपूर्ण हो या अविवेकपूर्ण, चाहे वह न्याय से प्रेरित हो या अज्ञानता से, चाहे वह पूर्वाग्रह से ग्रसित हो, किसी व्यक्ति के खिलाफ बल का प्रयोग दूसरे की इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता।

कल्पना कीजिए उस स्थिति की, यदि किसी व्यक्ति का बटुआ गुम हो जाए और वह इस निर्णय पर पहुँचे कि इसकी चोरी हो गई है। वह एक-एक करके पड़ोस के घर में घुस कर इसे ढूंढे और सबसे पहले एक बेईमान से दिखने वाले व्यक्ति को गोली मार दे क्योंकि कि वह उसे दोषी दिखता है। जवाबी कार्रवाई में बल के इस्तेमाल में भी पहले वस्तुनिष्ठ मानकों के अनुरूप साक्ष्यों से अपराध की पुष्टि हो जानी चाहिए, साथ ही यह भी साबित हो जाना चाहिए  कि अपराध किसने किया। इसके अलावा सजा को परिभाषित करने के साथ उसके प्रवर्तन के नियम की जरूरत होती है। यदि व्यक्ति इस तरह के नियमों के बगैर अपराध निर्धारित करने का प्रयास करता है, तो इसका मतलब साबित हुए बगैर अपराध मानने वाली बात हुईं। यदि कोई समाज बदला लेने के लिए बल का इस्तेमाल करने की छूट किसी अकेले व्यक्ति के हाथ में दे दे तो समाज की आपराधिक शासन कानून और खूनी झगडे़ एवं दुश्मनी के रूप में अवनति होगी।

यदि सामाजिक संबंधों मे शारीरिक बल प्रयोग को समाप्त करना है तो व्यक्ति को ऐसी संस्था की जरूरत है जिसके पास वस्तुनिष्ठ मानकों एंव नियमों के तहत लोगों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी हो। और यह जिम्मेदारी है- एक सरकार- एक उचित सरकार की। यह उसका न्यूनतम कर्तव्य है, व्यक्ति को सरकार की आवश्यकता क्यों है- यही वह कारण है और नैतिक औचित्य भी ।

निष्पक्ष नियंत्रण के तहत शारिरिक बल बदले की कार्रवाई करने का साधन है। यह कार्य वह वस्तुनिष्ठ तरीके से परिभाषित नियमों के तहत करता है।

आज जिससे बचने का प्रयास होता है वह यह कि शारीरिक बलों का इस्तेमाल करने पर सरकार का एकाधिकार होता है। सरकार के लिए इस तरह का एकाधिकार अनिर्वाय भी है क्योंकि यह बलों के प्रयोग को रोकने और उसके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अधिकृत है। और इन्हीं कारणों से सरकारी कार्रवाई पूरी तरह से परिभाषित, सीमाबद्ध एवं नियंत्रित होनी चाहिए। इसे अपने कार्य में मनमानी की छूट नहीं होनी चाहिए। इसे शक्ति से लैस यंत्र मानव की तरह होना चाहिए। यदि स्वतंत्र समाज चाहिए तो इसके लिए सरकार को नियंत्रित करना अनिवार्य है।

उचित समाजिक व्यवस्था के तहत, एक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कुछ भी करने के लिए कानूनी तौर पर स्वतंत्र है (जब तक वह दूसरे के अधिकारों का हनन नही करता) जबकि सरकारी अधिकारी प्रत्येक आधिकारिक कार्य करने के लिए कानूनी रूप से बाधित है। एक व्यक्ति वह सब कुछ कर सकता है जो कानूनी रूप से प्रतिबंधित नहीं है और एक सरकारी अधिकारी उसके अलावा कुछ भी नहीं कर सकता जिसके लिए कानूनी रूप से अनुमति है।

यह ''अधिकार'' को ''सामर्थ्य'' की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण बनाने का तरीका है। ये अमेरिकी अवधारणा है- ''कानूनों की सरकार न कि व्यक्तियों की ''।

स्वतंत्र समाज के लिए उपयुक्त कानूनों के स्वरूप और सरकार को इन कानूनों के दिये गये अधिकारो के स्रोत –दोनों की उत्पति उपयुक्त सरकार की प्रकृति और उसके उद्देश्यों से होती है। दोनों के आधारभूत सिद्धांत को स्वतंत्रता के घोषणा पत्र में निदेशित किया गया है। इन अधिकारों की रक्षा के लिए लोगों के बीच सरकारों का गठन किया जाता है और सरकार को उसके अधिकार शासित होने वाले लोगों कि अनुमति|

चूँकि सिर्फ वैयक्तिक अधिकारों की रक्षा ही सरकार का सही उद्देश्य है, और कानून का भी उचित विषय यही है। इसलिए सभी कानून व्यक्ति के अधिकारों और उनकी रक्षा को उद्देश्य करके बनाए जाने चाहिए। सभी कानून अवश्य ही निष्पक्ष (वस्तुनिष्ठ से सही टहराने योग्य) होने चाहिए। कोई कार्रवाई करने के पूर्व व्यक्ति को इसकी स्पष्ट रूप से जानकारी होनी चाहिए कि कानून उन्हें क्या करने से रोकता है और उसे करने पर उन्हें क्या सजा  हो सकती है।

सरकार के कानूनी अधिकारों का स्रोत है- शासित होने वालों की अनुमति। इसका अर्थ यह है कि सरकार शासक नहीं है बल्कि यह नागरिकों की अर्दली या अभिकर्ता है। इसका अर्थ यह है कि सरकार को एक विशेष उद्देश्य के लिए नागरिकों द्वारा दिये गये अधिकारों के अलावा और कोई अधिकार नहीं है।

यदि व्यक्ति स्वतंत्र एवं सभ्य समाज में रहना चाहता है तो एक  ही आधारभूत सिद्धांत है जिस पर उसकी सहमति होना अनिवार्य है- शारीरिक बलों का प्रयोग समाप्त करने का और अपनी शारीरिक आत्म रक्षा के लिये सरकार को अधिकृत करने का सिद्धांत ताकि वह इसे सुव्यवस्थित, निष्पक्ष एवं कानूनी तरीके से परिभाषित रूप में लागू कर सके। इसे दूसरे तरीके से ऐसे भी कहा जा सकता है कि उस बल प्रयोग एवं मनमानी पर रोक को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। किसी भी तरह की मनमानी जिसमें उसकी स्वयं की मनमानी भी शामिल है। यदि दो लोग के बीच कोई सौदा होता है जिसमें दोनों शामिल हों, फिर यदि उसमें  असहमति होती है तो क्या होता है?

एक स्वतंत्र समाज में दोनों को एक-दूसरे के साथ समझौता करने के लिए बाघ्य नहीं किया जाता है। वे समझौते या तो स्वैच्छिक सहमति के आधार पर या अनुबंध के द्वारा करते हैं। यदि एक व्यक्ति मनमाने तरीके से अनुबंध तोड़ता है तो इससे दूसरे को वित्तीय हानि हो सकती है और दूसरे के पास हर्जाने के तौर पर दोषी पक्ष की संपत्ति जब्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, लेकिन फिर भी यहां भी बल प्रयोग का निर्णय किसी व्यक्ति पर नहीं छोड़ा जा सकता। और यहाँ पर सरकर का बहुत ही महत्वपूर्ण एवं जटिल काम होता हैै-एक मध्यस्थ की भूमिका जो निष्पक्ष कानूनों के अनुसार दोनों व्यक्तियों के झगडे़ का समाधान करें ।

किसी भी सभ्य समाज में अपराधी बहुत कम संख्या में होते हैं लेकिन शांतिपूर्ण समाज के दीवानी कानून की अदालत द्वारा अनुबंधों को संरक्षण एवं इनका प्रवर्तन सबसे महत्वपूर्ण जरूरत है। इस तरह के संरक्षण के बगैर किसी सभ्यता का विकसित होना या बने रहना संभव नहीं है।

मनुष्य पशुओं की तरह अपनी तात्कालिक जरूरतों के लिए काम कर जीवित नहीं रह सकता। उसे विभिन्न समयावधि में अपने उद्देश्यों को निर्धारित एवं उन्हें प्राप्त करने के लिए काम करना होता है। व्यक्ति को अपने पूरे जीवन के लिए अपने कार्यों एवं योजनाओं का लेखा-जोखा तैयार करना होता है। मनुष्य का मस्तिष्क अच्छा और उसके ज्ञान जितना उत्कृष्ट है। उसकी योजनाओं की श्रृंखला उतनी ही लंबी है।  कोई सभ्यता जितनी ही कुलीन और ज्यादा जटिल हैं, उसके लिए उतनी ही लंबी श्रृंखला गतिविधियों की होनी चाहिए और इसी तरह व्यक्तियों के बीच अनुबंधित समझौते जितने ज्यादा होते हैं, ऐसे अनुबंधों की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकताएं भी वैसी ही होती हैं।

यहाँ तक कि कोई अपरिष्कृत समाज भी ऐसे ही काम नहीं कर सकता- जैसे कोई व्यक्ति कुछ अंडों के बदले आलू देने का व्यापार करने को सहमत होता है। वह अंडे ले लेता है और आलू देने से इंकार कर देता है। कल्पना कीजिए इसी तरह की मनमानी यदि किसी औद्यौगिक समाज में हो तो इसका क्या अर्थ होगा जहां व्यक्ति खरबों डॉलर के समान उधार या अनुबंध के आधार पर देता है, करोडों डॉलर के ढांचे को खड़ा करने के लिए या 99 वर्षों के पट्टे पर संपत्ति देता है।

इन अनुबंधों के एकतरफा उल्लघंन में शारीरिक बलों का अप्रत्यक्ष इस्तेमाल शामिल होता है। ये कई तरह से होते हैं जैसे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से समान ले लेता है और उसके बदले पैसा देने से इनकार कर देता है और उस पर दबाव (शारिरिक दबाव ही) बनाकर रखता है जिसमें उसके मालिक की सहमति नहीं होती । धोखाधड़ी में इसी प्रकार के बलों का अप्रत्यक्ष इस्तेमाल होता है। इसमें मालिक की सहमति के बगैर व्यक्ति समान ले लेता है- झूठे वादे करके। धमकी में भी अप्रत्यक्ष इस्तेमाल शामिल होता है। इसमें समान के बदले कुछ नहीं दिया जाता बल्कि यह धमकी और जोर-जबरदस्ती से लिया जाता है।

इस तरह के कोई भी कृत्य निश्चित ही आपराधिक हैं। दूसरी तरफ अनुबंध के एकतरफा उल्लंघन अपराध से प्रेरित भी हो सकते हैं लेकिन वह गैरजिम्मेदार या अविवेकी हो सकते हैं। कुछ ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें दोनों पक्ष न्याय की गुहार कर रहे हैं, चाहे बात जो भी हो। इस तरह के सभी मुद्दे निष्पक्ष रूप से परिभाषित कानून के विषय होने चाहिये और इनका समाधन निष्पक्ष मध्यस्थों और कानूनी प्रशासकों, न्यायाधीशों (जजों की पीठ) जो उचित हो उसके, द्वारा होना चाहिये।

इन सभी मामलों में न्याय को निदेशित करने वाले आधारभूत सिद्धांत पर नजर डालें तो यह सिद्धांत है कि ''कोई भी व्यक्ति दूसरे से कोई भी मूल्य उसके मालिक की सहमति के बिना नहीं प्राप्त कर सकता और एक व्यक्ति के अधिकार को एक व्यक्ति के एकतरफा निर्णय, अविवेक या मनमानी स्वेच्छाचारिता पर नहीं छोडा जा सकता।''

सार रूप में, सरकार का यही उपयुक्त उद्देश्य होता है कि वह व्यक्ति के सामाजिक अस्तित्व को संभव बनाए, उसके हितों की रक्षा करे एवं उन गलतियों पर नियंत्रण करे जिससे व्यक्ति एक दूसरे का बुरा कर सकता है।

सरकार के महत्वपूर्ण कार्यों को तीन श्रेणियों मे बाँटा जा सकता है, एक जिन सबमें शारिरिक बलों और व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा के मामले शामिल हैं। पहला है- पुलिस अपराधियों से व्यक्तियों की रक्षा करने के लिए होती है, दूसरा-सशस्त्र सेवाएँ विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा के लिए, तीसरा कानूनी अदालतें जो व्यक्ति के आपसी झगड़ों को निरपेक्ष कानून द्वारा सुलझाएं।

इन तीन श्रेणियों में और भी कई चीजें जुड़ी होती हैं जो लागू करते समय होने वाली व्यावहारिक समस्याओं एवं किसी विषेश कानून को लागू करने की जटिलताओं से संबंधित होती है। यह विशेष विज्ञान के क्षेत्र से संबंधित होता है, जिसे कानून का दर्शन कहते हैं। कानूनों को लागू करते समय बहुत सारी गलतियों एवं असहमति की संभावनाएं होती हैं। लेकिन यहाँ यह अनिवार्य होता है कि सिद्धांतों को लागू किया जाए ये सिद्धांत है, ''कानूनों एवं सरकारों का उद्देश्य व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना होता है।''

आज ये सिद्धांत विस्मृत कर दिए गए हैं, इनकी अवहेलना हो रही है और इनसे बचने की कोशिश होती है, इसी का नतीजा है- पूरे विश्व की वर्तमान स्थिति। क्रूर ताकतों द्वारा बर्बरतापूर्ण तरीके से कानूनों को लागू किया जा रहा है, मानवता की अवनति इस हद तक हो गई है कि कानून का शासन समाप्त हो गया है, तानाशाह की स्थिति पैदा हो गई है।

इस प्रवृति के विरोध में बगैर सोचे समझे कुछ लोगों द्वारा सवाल उठाया जा रहा है कि ''क्या सरकार का स्वरूप इतना अनैतिक है और क्या बगैर सरकार वाली सामाजिक व्यवस्था आदर्श है? राजनीतिक अवधारणा के रूप में अशासन एक अव्यवस्थित आवेश है। ऊपर विमर्श किए गए सभी कारणों से एक व्यवस्थित सरकार के बगैर समाज इस पहले अपराधी की मर्जी पर चलेगी, जो इस व्यवस्था के साथ ही आ जाता हेै और  सामूहिक युध्द के  रूप में इस समाज का पतन कर देगा। लेकिन मनुष्य की अनैतिकता की संभावना ही, अशासन के लिए अकेली आपत्ति नहीं है। यहाँ तक कि जिस समाज के सभी सदस्य विवेकी और नैतिक है, वह समाज भी अशासन की स्थिति में काम नहीं कर सकता। लोगों के बीच ईमानदार असहमति की स्थिति में भी निष्पक्ष कानून और मघ्यस्थ की आवश्यकता होती है और यह सरकार की स्थापना की जरूरत पैदा करता है।

अशासन के सिद्धांत से हाल ही के मतभेद रखने वाले, जो स्वतंत्रता की वकालत करने वाले कुछ युवाओं को भ्रमित कर रहे हैं, अस्वाभाविक असंगति है, जिसे ''प्रतियोगी सरकारें'' कहते हैं। आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थापकों की मान्यताओं को स्वीकार करें- जो सरकार के कर्तव्यों और उद्योग के कार्यों में भिन्नता नही देखते, और जो व्यापार के सरकारी स्वामित्व की वकालत करते हैं- प्रतियोगी सरकारों के समर्थक समान सिक्के के दूसरे पक्ष को लेते है और घोषणा करते हैं कि जब प्रतियोगिता, बिजनेस के लिए इतनी लाभकारी है तो इसे सरकार पर भी लागू किया जाना चाहिए। अकेली एकाधिकार वाली सरकार के बदले अलग-अलग कई सरकारें होनी चाहिए, जो नागरिकों के लिए निष्ठापूर्वक काम करें, प्रत्येक नागरिक खरीद बिक्री करने और अपनी पसंद की सरकारों का संरक्षण प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र हो।

स्मरण करें कि व्यक्ति पर बलपूर्वक नियंत्रण है कि उसे सिर्फ एक सरकार सेवाएं उपलब्ध करा रही है। अपने आप से पूछें कि बलपूर्वक नियंत्रण की स्थिति में प्रतियोगिता के क्या मायने होंगे?

कोई इस सिद्धांत को शब्दों या पदों में विरोधाभासी नहीं कह सकता, क्योंकि जाहिर है इसके लिए प्रतियोगिता और सरकार को समझने की जरूरत नहीं। न ही इसे अमूर्त बहाव कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें वास्तविकता का साथ या संदर्भ अनुबंधित नही होता, न ही इसे निश्चित रूप दिया जा सकता है या तो मोटे तौर पर। इसके लिए इस उदाहरण को देखा जा सकता है, मान लीजिए श्रीमान स्मिथ को शक हो गया, जो सरकार के ए उपभोक्ता हैं, कि उनके यहॉ श्रीमान जोन्स जो सरकार बी के उपभोक्ता हैं, ने चोरी की है पुलिस टीम श्रीमान जोन्स के घर की तरफ जाती है तो उनके दरवाजे पर पुलिस टीम बी से मिलती है जो स्मिथ के शिकायतों की वैधता को मानने से इनकार कर देती है और सरकार ए के प्रशासन को मान्यता नहीं देती, फिर क्या होता है? आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं।

सरकार की अवधारणा की उत्पति का बहुत लंबा और जटिल इतिहास है। सभी सभ्य समाजों में सरकारों द्वारा सही तरीके से काम करने के कुछ प्रमाण मौजूद हैं। यह अपने आप को सरकार और लुटेरों के समूहों के बीच कुछ अंतरों को मान्यता की परिघटना के रूप में व्यक्त करती है- सरकार को ''कानून एवं व्यवस्था'' के रक्षक के रूप में सम्मान एवं नैतिक अधिकार सुनिश्चित किए गए।

तथ्य यह है, यहाँ तक की, अनैतिक सरकारें भी कुछ हद तक न्याय एवं व्यवस्था बनाये रखने को अनिवार्य समझती हैं या तो स्वभाव या परंपरा के कारण और अपने अधिकारों का कुछ हद तक नैतिक औचित्य ठहराने के लिए, जैसा कि फ्रांस के सम्राट ने 'राजा के ईश्वरीय अधिकार' की स्तुति की थी, ऐसे ही सोवियत रूस के आधुनिक तानाशाहों ने अपने शासन को अपने अधीनस्थों की नजर में उचित ठहराने के लिए धन खर्च किया था।

मानव जाति के इतिहास में सरकार के उचित कार्य प्रणाली की समझ हाल की उपलब्धि है। यह सिर्फ दो सौ वर्ष पुराना है और इसकी शुरूआत अमेरिकी क्रांति के समय से हुईं। उन्होने न सिर्फ समाज की आवश्यकता और स्वरूप की पहचान की बल्कि उन साधनों की भी खोज की जिससे इसे व्यावहारिक रूप दिया जा सके। एक स्वतंत्र समाज अन्य किसी वैयक्तिक उत्पादों की तरह यादृचिछक साधनों से या सिर्फ इच्छा से या नेक इरादों वाले नेताओं से नहीं प्राप्त किया जा सकता। स्वतंत्र समाज बनाने और इसे स्वतंत्र बनाये रखने के लिए एक जटिल न्याय व्यवस्था, जो वैध सिद्धांतों पर आधरित हो, की जरूरत होती है। एक व्यवस्था जो प्रेरणाओं, नैतिक चरित्रों या किसी निश्चित अधिकारी की इच्छाओं पर र्निभर नहीं हो, एक व्यवस्था जो कोई अवसर नही चूके, निरंकुशता के पनपने के लिए कोई कानूनी कमियॉ नही हों।

अमेरिका की नियंत्रण एवं संतुलन व्यवस्था ऐसी ही उपलब्धि थी और यद्यपि संविधान के कुछ विरोधाभासों ने आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था के पनपने के लिए कुछ जगह छोड दी. सरकार के अधिकारों को सीमित एवं नियंत्रित करने के साधन के रूप में संविधान की अवधारणा विलक्षण उपलब्धि थी।

आज, जब इस विषय को समाप्त कर देने का सामूहिक प्रयास किया जाता है इसकी बार-बार आवृति नहीं की जा सकती कि संविधान सरकार को सीमित करता है। निजी व्यक्तियों को नहीं । यह निजी व्यक्ति के आचरणों को निर्धारित नहीं करता, सिर्फ सरकार के आचरणों  यह सरकारी अधिकारों का चार्टर नहीं है, बल्कि सरकार के विरुद्ध नागरिकों के लिए नागरिकों के संरक्षण का चार्टर है।

अब सरकार के आज के प्रचलित विचारों में नैतिक और राजनैतिक अवनति की अधिकतम सीमा पर विचार करें। व्यक्ति के अधिकारों की रक्षक होने के बजाय सरकार, उनकी सबसे खतरनाक उल्लंघनकारी बन रही हैं, स्वतंत्रता की रक्षा करने के बजाए दासता को स्थापित कर रही है, शारीरिक बल की पहल करने वाले से रक्षा करने के बजाए सरकार अपनी मर्जी के किसी मामले में किसी तरीके से शारीरिक बलों और जोर-जबरदस्ती का इस्तेमाल कर रही है। मानव संबंधों मे निष्पक्षता के उपकरण के रूप में काम करने के बजाय सरकार अनश्चितता और भय के घातक शासक के बतौर काम कर रही है। इसके लिए वह उन अस्पष्ट कानूनों का इस्तेमाल कर रही है जिनकी व्याख्या बेतरतीब नौकरशाहों की स्वेच्छा पर छोड़ दिया गया है। व्यक्ति की उच्छृंखला के कारण होने वाले अन्याय से व्यक्ति की रक्षा करने के बजाय सरकार स्वयं भी अन्याय पूर्वक अधिकार ज्ञापन कर रही है। इस तरह हम लोग तेजी से उच्चतम अवनति की ओर पहुंच रहे हैं- वह अवस्था जहाँ सरकार अपनी इच्छा से कुछ भी करने को स्वतंत्र हो, जबकि व्यक्ति को कुछ भी करने के लिए उसकी अनुमति लेनी पडे, ज़ो व्यक्ति के इतिहास की सबसे अंधकारमय अवधि है, वह अवस्था जहां बर्बर ताकतों का शासन हो।

अक्सर इस तरह की टिप्पणियां की जाती हैं कि अपनी भौतिक प्रगति के बावजूद मानव जाति ने उसकी तुलना में नैतिक प्रगति नहीं की है। इस तरह की टिप्पणियों में मानव प्रकृति के बारे में आमतौर पर कुछ निराशावादी निष्कर्ष होते हैं। यह सच है कि मानव जाति की नैतिक अवस्था शर्मनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। लेकिन यदि कोई सरकार के विकराल नैतिक उलट-पुलट (परोपकारी-सामूहिकवादी नैतिकता के द्वारा संभव बनाया गया) पर विचार करे, जिसके तहत मानव जाति ने अपने अधिकतर अतीत को गुजारा है, तो उसे यह आश्चर्य होगा कि कैसे मनुष्य ने अपनी सभ्यता को बचाये रखा और अपनी दिशा में कदम बढ़ाना जारी रखा।

व्यक्ति राजनीतिक सिद्धांतों के स्वरूप को भी ज्यादा स्पष्ट रूप में देखना आरम्भ करता है जिसे व्यक्ति के बौद्धिक पुनर्जागरण के संघर्ष के हिस्से के रूप में में स्वीकार और समर्थन करना है।

द वर्च्यू आफ सेल्फिशनेस से पुनर्मुद्रित