निजी मंडियों और कॉरपोरेट वेयरहाउस का नहीं क्रोनिज्म का विरोध करें किसान

किसानों को कृषि क्षेत्र में कुछेक कंपनियों का एकाधिकार न हो, कानून में ऐसे प्रावधान कराने के लिए आंदोलन करना चाहिए
प्रतिस्पर्धा युक्त मुक्त बाजार से ही किसानों को मिलेगा लाभ
पिछले 20 दिनों से देश की राजधानी दिल्ली को घेरे बैठे किसानों को हालिया कृषि सुधार कानूनों को रद्द करने के अतिरिक्त और कुछ भी मंजूर नहीं है। किसान यह तो मानते हैं कि उनके उपज के लिए एक से अधिक खरीददार का होना उनके हित में है, लेकिन उन्हें डर है कि सरकार यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और बाद में सरकारी मंडियों को यदि समाप्त कर देती है तो उनका क्या होगा? उन्हें डर है कि यदि उन्हें सिर्फ बाजार और कारपोरेट के हवाले छोड़ दिया गया तो शोषण के अलावा उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। उनके डर को इस बात से भी बल मिला है कि नए प्रावधानों में उन्हें कोर्ट जाने की अनुमति नहीं दी गई है। उनके सभी प्रकार के विवादों का निपटारा एसडीएम के स्तर पर ही होगा। किसानों के मन में यह डर इतना घर कर गया है कि सरकार द्वारा किसी विवाद की स्थिति में कोर्ट जाने का अधिकार होने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी।
दरअसल, कहीं न कहीं किसानों के मन में अब भी गांव के उस लाला और साहूकार की छवि बसी हुई है जिसकी गिद्ध दृष्टि किसान की उपज और उसकी जमीन पर जमी होती थी। गांव में एक ही लाला अथवा साहूकार होता था और किसानों के पास उनके रहमो करम पर रहने के अलावा और कोई चारा नहीं होता था। 1991 में अनेक क्षेत्रों से लाइसेंस परमिट कोटा राज को समाप्त कर दिया गया लेकिन कृषि को पवित्र गाय मानते हुए उसे सुधार के प्रयासों से अछूता रखा गया। जिन जिन क्षेत्रों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर बाजार के हवाले किया गया उन्होंने तरक्की के नए आयाम गढ़े जबकि कृषि क्षेत्र आधुनिक लालाओं अर्थात मंडी के आढ़तियों के रहमोकरम पर रह गया।
अब किसानों के ‘बुरे’ वक्त में आढ़तिया ’काम’ आता है। वह किसानों को ब्याज पर और कभी कभी दूसरे तरीकों (उपज के ऐवज में) से इसकी वसूली करता है। वही किसानों की उपज की गुणवत्ता और उसकी कीमत सर्टिफाइ करता है, ठीक पुराने लाला की तरह। यदि किसान आढ़तियों की जी हुजूरी नहीं करता है तो उसे कई तरीके से परेशान किया जाता है। कई बार तो अनेक नियमों का हवाला देकर उसकी उपज खरीदने से मना कर दिया जाता है। परेशान किसान के पास कोई और चारा नहीं होता। अबतक आम किसान के मन में उद्योगपतियों की छवि भी बड़े आढ़तियों से इतर नहीं बन सकी है। रही सही कसर वामपंथी विचारधारा वाले किसान यूनियन और विपक्षी दलों के नेताओं ने पूरी कर दी है। निहित स्वार्थ के तहत किसानों को भड़काया जा रहा है कि यदि मंडी बंद हो गई और एमएसपी की गारंटी नहीं दी गई तो उद्योगपतियों और कारपोरेट के द्वारा उनका शोषण किया जाएगा और उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया जाएगा। किसानों को जानबूझकर यह नहीं बताया जाता है कि निजी मंडियों के खुलने से कई खरीददार आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगे और इसका फायदा अंततः किसानों को ही मिलेगा। साथ ही सरकारी मंडियों को भी अपनी कार्यशैली में परिवर्तन करने को मजबूर होना पड़ेगा और किसानों को आदर सम्मान के साथ वाजिब मूल्य और सेवाएं प्रदान करने को मजबूर होना पड़ेगा।
यह ठीक वैसे ही होगा जैसे कि निजी बैंकों को कारोबार की छूट मिलने के बाद निजी के साथ साथ सरकारी बैंकों की कार्यशैली में परिवर्तन करने को मजबूर होना पड़ा। लंबा समय नहीं हुआ जबकि सरकारी बैंकों में खाता खुलवाने के लिए किसी गारंटर को साथ लेकर घंटों लाइन में खड़ा होना पड़ता था। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि इस क्षेत्र में उनकी मोनोपोली यानी एकाधिकार होता था। आज बैंक अपनी सेवाओं के साथ आपके घर पर मौजूद रहता है। इसलिए किसानों को कृषि के क्षेत्र में उद्योगों और कारपोरेट के प्रवेश को अपने खिलाफ ना मानते हुए इसका विरोध छोड़ देना चाहिए। इसके बजाए किसानों को सरकार पर इस क्षेत्र में पारदर्शिता बरतने की मांग करनी चाहिए जिससे प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित की जा सके बजाए इसके कि किसी एक कंपनी अथवा उद्योगपति को एकाधिकार प्राप्त हो जाए।
- आजादी.मी
सांकेतिक फोटो साभारः गूगल
- Log in to post comments