अर्थव्यवस्था पर बोझ बनती राजनीति

नए वर्ष में देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की है। घटती आर्थिक विकास दर, बढ़ता राजकोषीय और चालू खाते का घाटा, लगातार चिंता का कारण बना हुआ है। यही नहीं, पिछले दिनों खुदरा मुद्रास्फीति की दर 14 महीने के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां ने भी आगाह किया है कि यदि समय रहते आर्थिक निर्णय नहीं लिए गए तो भारत की साख और गिर सकती है।
2014 में आम चुनाव भी हैं, इसके मद्देनजर इसकी संभावनाएं कम ही हैं कि अगले कुछ महीनों के दौरान आर्थिक नीतियों से संबंधित दूरगामी निर्णय लिए जाएंगे। बल्कि इसके विपरीत चुनावी माहौल में विभिन्न तबकों के लिए आर्थिक पैकेज और राहत पैकेज की घोषणाएं हो सकती हैं। असल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद स्थितियां यूपीए सरकार के खिलाफ ही गई हैं। ऐसे में सरकार कठोर आर्थिक फैसलों के बजाए लोकलुभावन घोषणाएं कर सकती है।
खासकर तब जब राजनीतिक परिस्थितियों अनुकूल न हों और राजनीतिक उठा पटक का माहौल हो, सभी पार्टियां अपने आम को आम आदमी का रहनुमा बनाने के लिए लोकलुभावन नीतियों और वायदों का पिटारा खोल देती हैं। मगर इसका खामियाजा अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ता है। पिछले आम चुनावों से पहले यूपीए सरकार ने किसानों के 60 करोड़ रुपये के कर्जमाफी की घोषणा की थी। इसी तरह अभी जो खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया है, उससे भी अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ेगा। इस मामले में कोई भी दल पीछे नहीं है।
छत्तीसगढ़ में दो या एक रुपये किलो चावल देने वाली योजना भी इसी का एक रूप है। तमिलनाडु में तो मतदाताओं को टीवी, लैपटॉप के साथ ही मंगलसूत्र वगरैह देने की होड़ लग जाती है। उत्तर प्रदेश में भी लैपटाप और साइकिलें बांटी जा चुकी हैं। अभी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में पहली बार सत्ता संभालने वाली आम आदमी पार्टी ने भी अपने चुनावी वायदों के अनुरूप बिजली की दरें आधी कर दी हैं और दिल्लीवासियों को 666 लीटर पानी मुफ्त देने का ऐलान किया है। बिजली की बढ़ती उत्पादन लागत, निरंतर बढ़ती मांग और अपर्याप्त आपूर्ति के बावजूद सस्ती बिजली का पैकेज देश के कमजोर आर्थिक हालात में समझ से परे है। बिजली की दरें आधी करने पर मांग और आपूर्ति में अंतर और भी बढ़ेगा। जिसको पाटने के लिए किसी गांव में अंधेरा किया जाएगा या फसलों को बिजली-पानी के लिए तरसता छोड़कर राजधानी में एयरकंडीशन चलाया जाएगा। यह नीति किसी दल को सत्ता तो दिला सकती है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भावी पीढ़ी के लिए घातक होंगे।
असल में जिस बात की जरूरत है वह यह कि सब्सिडी का सही वितरण होना चाहिए। चूंकि देश के एक बड़े तबके के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, उसे बुनियादी चीजें नहीं मिल पाती हैं, ऐसे में सब्सिडी पूरी तरह खत्म नहीं की जा सकती, मगर इसे खैरात नहीं बनाना चाहिए। अनुत्पादक सब्सिडी एक तरफ सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ाएगी, वहीं दूसरी तरफ संसाधनों का मुफ्त वितरण भी करेगी। संसाधनों से वंचित व्यक्ति के लिए सब्सिडी आवश्यकता है, लेकिन संपन्न लोगों को भी बिजली पानी, डीजल, गैस पर सब्सिडी देना अवांछनीय है। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक व आधारभूत संरचना जैसे अतिआवश्यक उत्पादक क्षेत्रों में निवेश में कमी करनी पड़ती है।
राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएं सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जबकि देश की प्राथमिकता टिकाऊ आर्थिक विकास होना चाहिए। राजनीतिक दलों और सरकारों की प्राथमिकताएं ऐसी होनी चाहिए कि विकास का फायदा अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। देश को ‘चुनावी पैकेज’ नहीं, बल्कि सशक्त नेतृत्व चाहिए, जो जनता के भरोसे पर खरा उतर सके। जिसकी प्राथमिकताएं समग्र विकास हो। जो युवाओं में निवेश करे। उनका कौशल निखारे, उन्हें रोजगार प्रदान करे, न कि उन्हें सस्ती सुविधाओं का आदी बनाकर गुमराह करे। वास्तव में कृषि, उद्योग, व्यापार में उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाकर ही हम आर्थिक महाशक्ति बन सकते हैं
- अश्विनी कुमार
साभारः अमर उजाला
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