आर्थिकी में सुधार की कोई उम्मीद नहीं!

आर्थिक जानकारों की मानें तो सन 2013 में यूपीए सरकार से आर्थिकी में सुधार की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। इस लिहाज से सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे कौशिक बसु को सबसे समझदार मानना चाहिए, जिन्होंने कई महीनों पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि 2014 में नई सरकार बनने से पहले किसी बड़े आर्थिक सुधार की उम्मीद नहीं रखें। हालांकि अपवाद के तौर पर सरकार ने कुछ फैसले किए हैं, लेकिन वे प्रतीकात्मक ज्यादा हैं। मसलन खुदरा कारोबार में एफडीआई का फैसला सरकार ने किया है, लेकिन इससे अभी तत्काल कोई निवेश आएगा, इसकी गुंजाइश कम है।
इस नाते सन 2012 में भारत की आर्थिकी वैसी ही रही जैसी राजनीति रही। अर्थव्यवस्था अनिश्चितता और गिरावट में गिरती-उठती चली तो सरकार भटकी हुई लगी। आर्थिक सुधारों के एजेंडे में डा. मनमोहन सिंह लाचार थे। प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति भवन गए, तभी कुछ काम होता लगा। दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्था में भारत की कहानी का रोमांच खत्म हुआ। तभी आखिरी महीनों में सरकार ने खुदरा कारोबार में एफडीआई के फैसले पर संसद का ठप्पा लगवाया।
कुल मिलाकर सन 2012 में भारत की अर्थव्यवस्था इंतजारी के दौर में थी। महंगाई, ब्याज दर, निवेश, रुपए की कीमत, विकास दर, औद्योगिक उत्पादन के तमाम पैमानों पर यह इंतजार होता रहा कि कब हालात सुधरेंगे। उसी अनुपात में शेयर बाजार गिरते-उठते जैसे तैसे खींचे। उस नाते 2013 का नया साल उम्मीदों वाला है। माना जा रहा है कि अर्थव्यवस्था सुधरेगी, निवेश आएगा और ब्याज दर घटेगी। भारत की साख रेट बेहतर होगी।
क्या ऐसा होगा? सन 2012 में जो दशा-दिशा रही, वह सन 2013 में अलग होगी, इसके कुछ संकेत हैं। मगर आर्थिक संकेतों पर राजनीति हावी नहीं होगी, इसकी भी गारंटी नहीं है। सन 2012 में राजनीति ने आर्थिकी को खाया। घोटालों के राजनैतिक भंवर में अर्थव्यवस्था फंसी। सन 2013 चुनाव और चुनावी तैयारियों का साल हैं, इसलिए अर्थव्यवस्था में सख्ती, सुधार और मितव्ययता के सरकारी फैसले मुश्किल हैं।
भारत की अर्थव्यवस्था से दुनिया का ध्यान हट गया है। खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को अनुमति के बावजूद विदेश से निवेश नहीं आना है। आम चुनावों की चिंता में विदेशी निवेशक सन 2013 में इंतजार की नीति अपना सकते हैं।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री चिदंबरम सन 2013 में आर्थिक चमत्कार की रणनीति बनाए हुए हैं। इन दोनों की सोच में आर्थिक फैसले होने हैं। सवाल है, सन 2012 में ये क्या कर पाए, जो सन 2013 में ये तीर मार लेगें? कुछ भी हो, लोगों को आर्थिक फीलगुड कराना आसान नहीं हैं।
केंद्र सरकार खुद भी आर्थिक विकास की दर को लेकर बहुत उम्मीद में नहीं है। तभी 12वीं पंचवर्षीय योजना के जिस दस्तावेज को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में मंजूर किया गया, उसमें विकास दर का अनुमान घटा दिया गया। नौ फीसद का पुराना अनुमान घट कर आठ फीसद पर आ गया है। 2017 तक देश की आर्थिक विकास दर को औसतन आठ फीसद रखना बहुत मुश्किल काम होगा, जिसके पूरा होने की संभावना किसी आर्थिक जानकार को नहीं दिख रही है।
पिछले कई महीनों से महंगाई लगभग स्थिर है, इसके बावजूद रिजर्व बैंक नीतिगत ब्याज दरों में बदलाव नहीं कर रहा है तो इसका कारण देश और दुनिया के अस्थिर आर्थिक हालात हैं। सरकार की ओर से दबाव देने के बावजूद रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कमी नहीं की है। उनका मानना है कि इससे महंगाई फिर से बढ़ने लगेगी। यानी सरकार अगर विकास दर बढ़ाने का प्रयास करती है तो महंगाई भी उसके साथ-साथ बढ़ता है। चुनावी साल होने का कारण सरकार इस साल यह जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है।
बाजार और निवेशकों को अच्छा संदेश देने के लिए केंद्र सरकार प्रणब मुखर्जी के बजट में किए गए कई फैसलों को बदला है। गार पर रोक लगाई है और टैक्स के नियमों को संशोधित किया है। इसका फायदा अभी नहीं दिख रहा है, क्योंकि दुनिया में आर्थिक मुश्किल कम नहीं हुई है और भारत में राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ी है। इस साल नौ राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनावों से पहले इस बार यूपीए सरकार अपना आखिरी बजट पेश करेगी। लिहाजा बजट के लोक लुभावन होने का अंदाजा है।
लोक लुभावन बजट में सरकार खर्च बढ़ाएगी, जबकि उसकी आमदनी का स्रोत सीमित होगा। पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत बढ़ाने का फैसला अभी नहीं होना है। खाद्य सुरक्षा कानून निश्चित रूप से बनेगा, जिसे लेकर सरकार के घटक दल के नेता शरद पवार ने सवाल उठाए हैं। खाद्य सुरक्षा योजना अकेली योजना नहीं है, जिसकी घोषणा चुनावी साल में हो सकती है। इसके अलावा भी कई योजनाएं लाइन में हैं। यानी एक तरफ लोक लुभावन घोषणाएं होनी हैं और दूसरी ओर सख्ती और खर्च कम करने वाले फैसले टलने हैं, जिससे वित्तीय घाटा कम करने की सारी कोशिशें बेकार जानी हैं।
- सुशांत कुमार
(नया इंडिया से साभार)
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