अनिवार्य मतदान का औचित्य
Published on 18 Nov 2014 - 19:08

गुजरात में नगरपालिकाओं और पंचायतों में मतदान को अनिवार्य बनाने की जद्दो-जहद का अंनतः पटाक्षेप हो ही गया। अब गुजरात के सभी मतदाताओं को शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों के चुनावों में अनिवार्यतः मतदान करना पड़ेगा। इस कानून का श्रेय भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही जाता है। उनके गुजरात के मुख्यमंत्री रहते इसे दो बार- दिसंबर 2009 और मार्च 2011 में पारित किय गया, किंतु तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के विरुद्ध मानती थीं और उन्होंने अप्रैल 2010 में इसे पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था। नए राज्यपाल ओपी कोहली ने तीन वर्ष आठ महीनों ने लंबित उस कानून को स्वीकृति दे दी। ऐसी क्या बात है कि गुजरात में संघीय व्यवस्था के तीसरे तल अर्थात स्थानीय सरकारों में मतदान को अनिवार्य बनाने की जरूरत आन पड़ी? गुजरात में नगरपालिकाओं और पंचायतों के पिछले कई चुनावों के आंकड़ों को देखने पर लगता है कि वहां मतदान लगभग साठ से सत्तर प्रतिशत के बीच होता रहा है जो काफी ठीक-ठाक है। लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले देश इंग्लैंड में मई 2014 में हुए स्थानीय चुनावों में मतदान केवल 36 प्रतिशत हुआ था।
क्या केवल सबके वोट दे दे ने से ही लोकतंत्र मजबूत होता है? जब भी लोकतंत्र की चर्चा होती है अब्राहम लिंकन की याद जरूर आती है। उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए है। इसमें जनता द्वारा चुनी हुई सरकार केवल एक घटक है; लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वह सरकार जनता की हो अर्थात सरकार (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका) में उन सभी सामाजिक घटकों का प्रतिनिधित्व हो जो अपनी विविधताओं से 'जनता' तत्व का निर्माण करते हैं। इसके लिए जरूरी है कि प्रमुख राजनीतिक दल समाज के सभी वर्गों से प्रत्याशी खड़ा करें और उनको निर्वाचित करा के सरकार में स्थान दिलवाएं। फिर जो सरकार बने वह 'जनता के हित के लिए' काम करे, लेकिन बिना अच्छे प्रत्याशी लाए ही मतदान को अनिवार्य करना तो बुरे और अपराधी प्रवृति के राजनेताओं को एक प्रकार से वैधता प्रदान करने जैसा है। लोकतंत्र की पुस्तक में ऐसा संदर्भ मिलता नहीं कि बिना सबकी अनिवार्य सहभागिता के लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता।
स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है और विरोध करने की अधिकार उसकी आधारशिला। क्या अनिवार्य मतदान इन दोनों पर कुठाराघात नहीं करता? क्यों हम अपने लोकतंत्र में एक ऐसा प्रयोग करना चाहते हैं जिसकी न कोई जरूरत है, न कोई औचित्य। इस संबंध में प्रायः ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण दिया जाता है, लेकिन ऑस्ट्रेलिया एक छोटा, शिक्षित और संपन्न देश है। वहां इसे लागू किया जा सकता है। क्या हमें पता नहीं कि जनसंख्या की दृष्टि से हम प्रतिवर्, एक ऑस्ट्रेलिया भारत में जोड़ते हैं। फिर, दुनिया का कोई भी बड़ा और स्थापित लोकतंत्र ऑस्ट्रेलिया के अनिवार्य मतदान का अनुसरण तो नहीं करता। क्या शिक्षा द्वारा हम बच्चों में मतदान के महत्व का संस्कार नहीं डाल सकते? क्या प्रोत्साहन और पुरस्कार की व्यवस्था द्वारा मतदान न करने वालों को भी मतदान के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता? अनिवार्य मतदान को लागू करने में सैद्धांतिक के साथ साथ व्यावहारिक कठिनाइयां भी हैं।
एक ओर प्रधानमंत्री कानूनों को कम करने की मुहिम चलाए हुए हैं, वहीं गुजरात सरकार एक दूसरे कानून से एक नए किस्म के अपराध का सृजन कर रही है। कल की तारीख में स्थानीय निकायों के चुनावों में वोट न डालने वाला गुजराती अब अपराधी माना जाएगा। जिसके दंड का निर्धारण कोई और नियम करेगा जिसे अभी बनाया जाना है। न तो गुजरात की मुख्यमंत्री और न ही भारत के प्रधानमंत्री गुजरात और देश में भ्रष्टाचार के स्वरूप से नावाकिफ हैं। क्या वे नहीं समझ पा रहे हैं कि इस नए कानून से सरकारी अधिकारी एक भोले-भाले, गरीब या सामान्य नागरिक का कितना उत्पीड़न करेंगे? अमीर लोग तो किसी भी दंड से निपट लेंगे, लेकिन गरीब जनता का क्या होगा? वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में गरीबों की सहभागिता ज्यादा ही होती है; तो क्या यह कानून उन अमीरों के लिए बनाया जा रहा है जो मतदान को गंभीरता से नहीं लेते? और ऐसा करने में कहीं कोई राजनीतिक लक्ष्य तो नहीं? अनिवार्य मतदान पर दुनिया के जिन देशों का हवाला दिया जाता है उनमें कुछ को छोड़ कर कहीं भी दंड का प्रावधान नहीं है, और जहां है जैसे साइप्रस, लकजम्बर्ग, और फिजी में, वहां आजतक उसे लागू ही नहीं किया गया। शेष देशों- पनामा, होंडुरास, एल साल्वाडोर, यूनान, मिस्त्र, कोस्टारिको, मैक्सिको आदि में अनिवार्य मतदान के उल्लंघन पर किसी दंड की व्यवस्था ही नहीं है।
इक्वाडोर में यह व्यवस्था है कि प्रमाणित अशिक्षा के आधार पर या 65 वर्ष की उम्र होने पर कोई दंड नहीं दिया जा सकता। अब अपने देश में यह कारण भी भ्रष्टाचार और परेशानी का सबब बन सकता है, खासतौर पर वरिष्ठ नागरिकों के लिए। वे अधिकारियों के चक्कर लगाएं और अपना प्रमाणपत्र दिखाएं। क्यों हम अपने देश में प्रत्येक समस्या का समाधान कानून द्वारा चाहते हैं- खास तौर पर राजनीतिक समस्याओं का? क्यों हम लोकतंत्र को व्यापक बनाने के प्रयास में लोकतंत्र के असली संप्रभु जनता को भी कानून का बंधक बनाना चाहते हैं? वास्तव में, लोकतंत्र में लचीलापन बनाए रखना जरूरी है। ऐसा न हो कि साधनों (अनिवार्य मतदान) में हम इतना उलझ जाएं कि लोकतंत्र के साध्य (जनता की और जनता के लिए सरकार) हमारी दृष्टि से ही ओझल हो जाए। भारत जैसे समर्थ और विशाल लोकतंत्र में हमें साध्य और साधन में संतुलन रखना होगा। मतदान जरूरी है, लेकिन उसे अनिवार्य बनाने से बचना होगा।
- डॉ. एके वर्मा (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
साभारः दैनिक जागरण
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